मैं जीवन के शब्दकोष में
अर्थ ढूँढ़ती अपनेपन का !
भीतर जलती एक चिता है,
बाहर उत्सव, गीत सृजन का।
हृदय बावरा अब भी सोता
स्मृतियों को रखकर सिरहाने
फिर पुकार बैठेगा तुमको
यह जब - तब, जाने - अनजाने !
आस अभी, शायद चुन पाऊँ
टुकड़ा-टुकड़ा मन दर्पण का !
भीतर जलती एक चिता है
बाहर उत्सव, गीत सृजन का।
नेह के नाते, कब बन जाते,
कब ये मन पगला जाता है !
कोई ना जाने, किस क्षण में
मिलना, बंधन कहला जाता है !
तन नश्वर, बंधन भी नश्वर,
नश्वर हर रेशा बंधन का !
भीतर जलती एक चिता है,
बाहर उत्सव, गीत सृजन का।