दीपावली जब से नजदीक आती जा रही है, मन अजीब अजीब सा हो रहा है। मुखरित मौन पर व्याकुलभाई की टिप्पणी पढ़ी - "विचार करें अब दीवारों पर रंग कितने घरों में खिलखिलाते हैं। रंगाई-पुताई करने वाले लोगों से भी जरा उनका हाल इस पर्व पर पूछ लें।"
मन सोचने को इसी टिप्पणी से बाध्य हुआ, ऐसा नहीं है। ना जाने कब से ये विचार मन में घुमड़ रहे हैं। रोज स्कूल आते जाते समय राह में बनती इमारतों/ घरों का काम करते मजदूर नजर आते हैं। ईंट रेत गारा ढोकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम करनेवाले मजदूर मजदूरनियों को देखकर यही विचार आता है - कैसी होती होगी इनकी दीवाली ?
रास्तों के किनारे, कचरे से उफनती कचरा पेटियों के आसपास कूड़े के ढ़ेर के ढ़ेर लगे हैं। आखिर इतना कूड़ा कहाँ से आ रहा है ? सालभर का एक ही साथ निकाल रहे हैं क्या लोग ? कूड़े के ढेर से कबाड़ बीनते बच्चों , कबाड़ के टुकड़ों के लिए लड़ती औरतों और उस दुर्गंध को झेलकर कमाए गए चार पैसों पर गिद्ध की सी नजर गड़ाए शराबी मर्दों को पता भी है कि दीवाली आ रही है?
मेरी कामवाली वनिता ज्यादा कमाई की चाह में लोगों के घर दीपावली की साफ सफाई का अतिरिक्त काम कर रही है पिछले पाँच दिन से। नौ घरों का नियमित काम तो है ही। मेरे घर तक पहुँचते-पहुँचते निढाल हो जाती है। मैंने अपने घर की सफाई का काम खुद किया तो बुरा मान रही है। अपने घर को सजाना छोड़ दूसरों के घर सजा सँवार रही है। मैं कहती हूँ - बीमार पड़ेगी तू। वो कहती है कि मजबूरी है दीदी, पैसों की जरूरत है। उसके लिए दीवाली का अर्थ इतना ही है - कुछ ज्यादा कमाई का मौका।
इलेक्शन में सेना के जवानों की ड्यूटी लगी है। बूथ के बाहर हाथ में राइफल सँभाले मुस्तैदी से बैठे उस जवान को देखकर मन भर आया है। होठों पर मूँछों की हलकी सी कोर, नाटा कद, छोटी छोटी आँखें, उम्र लगभग वही, जिसे हम खेलने खाने की उम्र कहते हैं। मेरे बेटे से अधिक उम्र नहीं होगी उसकी। मन किया कि उससे बात करूँ पर सामने से जेठजी और अन्य बुजुर्ग आते देख आगे बढ़ना पड़ा। ये बच्चा ( हाँ, वह भी तो किसी का बच्चा ही है ) दीपावली में क्या अपने परिवार के पास जा सकेगा ? कैसी होगी उसकी और उसके परिवार की दीवाली ? गाँवों में घर परिवार छोड़कर रोजीरोटी की तलाश में शहर में फँसे लाखों मेहनतकश लोगों की भी तो उनका परिवार राह जोहता होगा ना दीवाली पर ?
बाढ़ में प्रभावित हुए लाखों परिवार, वे किसान जिनकी कड़ी मेहनत से उगी फसलें बेमौसम की बरसात से बर्बाद हो गई हैं, वे छोटे व्यापारी और दुकानदार जिनका व्यापार मंदी की मार, बढ़ती हुई ऑनलाइन खरीददारी और मॉल कल्चर की वजह से चारों खाने चित पड़ा है, वे बेघर जिनके घर और रिहायशी इमारतें बारिश में ढ़ह गए हैं - दीवाली पर कितने खुश हैं ?
मन को समझाने के लिए माँ की कही एक बात याद करती हूँ - घरों की रंगाई पुताई करनेवाले हों या बोझा ढ़ोनेवाले या गरीब किसान मजदूर, त्योहार तो सबका है। कोई महँगी मिठाइयाँ खा बाँटकर मनाएगा, कोई गुड़ की डली से मुँह मीठा करके मनाएगा। एक ही परिवार के चार बच्चों में भी सबकी किस्मत समान नहीं होती। धरती सबकी माँ कहलाती है पर बाढ़ में घर सबके नहीं बह जाते।
वैसे इस बार बाढ़ ने इतनी तबाही मचाई है कि दीपावली का उत्साह फीका पड़ गया है। बारिश भी दीपावली देखकर जाने की जिद पर अड़ी है। रास्तों पर फेंका कचरा गीला होकर सड़ रहा है।
हे माँ लक्ष्मी ! आप कैसे आएँगी ? इस शहर के गंदे और गड्ढों भरे रास्तों में विचरण की हिम्मत जुटा पाएँगी या पटाखों के, गाड़ियों के धुएँ से भरे प्रदूषित वायुमार्ग से पधारेंगी ?
दूसरों के घरों को चमकाने में जिनके अपने घर अंधकारमय रह गए, अस्वच्छ रह गए, कभी उनके भी घर चली जाना माँ! वे तंग, गंदी, संकरी गलियों में, काली - मैली झुग्गियों में रहने को मजबूर हैं और आप चमकते, स्वच्छ, सजे सँवरे घरों को पुरस्कृत करने के अपने प्रण पर अडिग हो !
ना आप वहाँ जाएँगी, ना इनके दिन बदलेंगे। पीढ़ी दर पीढ़ी यही चलता रहेगा। दीवाली आती रहेगी, जाती रहेगी। सच ही कहा है किसी ने - "पैसा पैसे को खींचता है ।"