शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

बचपना

बचपना

कभी कभी यूँ लगता है....
मैं एक चिड़िया होती,
सुबह जगाती आपको,
चूँ चूँ करके दाने माँगती,
खिड़की से आकर,
बैठ जाती आपकी टेबल पर !
लिखते जब कुछ आप,
मैं निहारती चुपचाप !

कभी कभी यूँ लगता है....
मैं चाबी वाली गुड़िया होती,
चाबी अपने में भर लेती,
आपके पीछे पीछे घूमती,
सारे घर में !
नीले मोतियों सी आँखों से
कह देती हर बात !

कभी कभी यूँ लगता है....
मैं हवा होती,
छूकर हौले से जाती,
हलकी थपकियाँ दे सुलाती !
कभी आप लिखते और....
मैं सारे पन्ने उड़ा देती,
मजा आता ना !

कभी कभी यूँ लगता है....
मैं बदली होती,
बरसती उसी दिन,
जब निकलते आप,
बिन छाते के घर से !
कर देती सराबोर,
नेह जल से !

और जब मैं ये सब करती,
पता है, आप क्या कहते ?
आप कहते ----
"ये क्या बचपना है ?"
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2 टिप्‍पणियां:

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  2. बहुत बढ़िया और रोचक प्रस्तुति प्रिय मीना। कभी-कभी मन यूं ही कुछ-कुछ बड़ा अलग-सा सोचने को आतुर हो उठता है। जानें किसे या अपने आप को सम्बोधित करता मन,खुद को जीवन की तय परिधियों से बाहर निकल कर, कुछ और ही होने की कल्पना का आनन्द लेना चाहता है। इन बचपने से भरपूर आकांक्षाओं को संजोती इस मज़ेदार रचना को पढ़कर बहुत अच्छा लगा। सचमूच क्या बचपना है प्रिये!!👌😀 ढेरों शुभकामनाएं और बधाई।🌷🌷❤️❤️

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