गुरुवार, 7 सितंबर 2017

चलो, खिल्ली उड़ाएँ

चलो हम खिल्ली उड़ाएँ,
लोग जो अच्छे हैं,सच्चे हैं,
सरल हैं, सीधे हैं,
देश की जो सोचते हैं,
भाईचारा पोसते हैं,
उन्हें धमकाएँ, डराएँ !!!
हम मजाक उनका बनाएँ !!!

वे युवक,जो नहीं करते
नकल पश्चिम सभ्यता की,
वे युवतियाँ, जो नहीं करती
तमाशा असभ्यता का,
आज भी रखें बड़ों का मान,
मर्यादा रखें छोटों की जो !
चलो उनको बरगलाएँ
उनकी हम खिल्ली उड़ाएँ !!!

जो ना लें रिश्वत, नहीं हों
लिप्त भ्रष्टाचार में,
जो करें विश्वास,
नेकी, दया, सदाचार में.
खरी सच्ची बात कह दें,
बिन डरे और बिन झुके
दिन को दिन और
रात को जो रात कह दें
मार्ग से उनको हटाएँ !!!

चलो, हम खिल्ली उड़ाएँ !!!



सोमवार, 4 सितंबर 2017

अध्यापक, शिक्षक या टीचर ?

ओ एकांत कुटी-चर !
तू टीचर बनकर कहाँ आ गया !
वन के पशु भी सजग रहे,
पर तू ही धोखा यहाँ खा गया !

तू वशिष्ठ था जिन्हें, राम भी,
कर प्रणाम, सौभाग्य समझते !
सांदीपन की समिधा लाते,
कृष्ण सुदामा मेह बरसते !
यदि चाणक्य नहीं होते तो,
चंद्रगुप्त को कौन जानता ?
खो आया सम्मान कहाँ, वह
जिसको तेरे नैन तरसते !!!
अरे ! चंद चाँदी के टुकड़ों,
पर जीना क्यों तुझे भा गया ?
ओ एकांत कुटीचर !
तू टीचर बनकर कहाँ आ गया !

जिस समाज में रहने आया
वह तो तेरे योग्य नहीं था,
अब तू उसके योग्य नहीं है
यह विडंबना दुःखद नहीं क्या ?
देख पराई चुपड़ी को तू,
क्यों अपना जी ललचाता है ?
अरे, भूल पर भूल ना करना,
रह पाएगा तू ना कहीं का !!!
रक्षा कर लो उस गुरुत्व की,
जिसे विश्व में देश पा गया !
ओ एकांत कुटीचर !
तू टीचर बनकर कहाँ आ गया !

साहस रख, प्रत्येक परिस्थिति,
स्थाई कभी न रहे, ना रही है !
आज राष्ट्र की बागडोर,
अध्यापक के हाथों में ही है !
भूल गए वो यदि अपना,
पूर्व रूप, तो भी चिंता क्या ?
नया वर्ग निर्माण, यह भी
ध्रुव सी अविचल,बात नहीं क्या ?
शिक्षक वर्ग कहेगा- 'शिक्षक व्यर्थ नहीं'
कुछ यहाँ रह गया !
ओ एकांत कुटीचर !
तू टीचर बनकर कहाँ आ गया ?
( कुटी-चर = कुटिया का वासी )
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यह कविता मेरी रचना नहीं है। मेरी एक छात्रा वंदना शर्मा ने मुझे यह कविता कुछ वर्षों पहले दी थी। 'शिक्षक दिवस' के अवसर पर मेरे संकलन से आज यह सुंदर कविता आप सभी के पठन हेतु प्रस्तुत है......

शनिवार, 2 सितंबर 2017

शब्द

मानव की अनमोल धरोहर
ईश्वर का अनुपम उपहार,
जीवन के खामोश साज पर
सुर संगीत सजाते शब्द !!!

अनजाने भावों से मिलकर
त्वरित मित्रता कर लेते,
और कभी परिचित पीड़ा के
दुश्मन से हो जाते शब्द !!!

चुभते हैं कटार से गहरे
जब कटाक्ष का रूप धरें,
चिंगारी से बढ़ते बढ़ते
अग्निशिखा हो जाते शब्द !!!

कभी भौंकते औ' मिमियाते
कभी गरजते, गुर्राते !
पशु का अंश मनुज में कितना
इसको भी दर्शाते शब्द !!!

रूदन,बिलखना और सिसकना
दृश्यमान होता इनमें,
हँसना, मुस्काना, हरषाना
सब साझा कर जाते शब्द !!!

शब्द जख्म और शब्द दवा,
शब्द युद्ध और शब्द बुद्ध !
शब्दों में वह शक्ति भरी, जो
श्रोता को कर दे निःशब्द !!!

बिन पंखों के पंछी हैं ये
मन-पिंजरे में रहते कैद,
मुक्त हुए तो लौट ना पाएँ
कहाँ-कहाँ उड़ जाते शब्द !!!