हम सब कितने बँटे हुए हैं
इक दूजे से कटे हुए हैं !
कब, क्या कहना, किसे, कहाँ पर
सब पहले से रटे हुए हैं !
दिखने को बाहर से दिखते
जैसे बिलकुल जुड़े हुए हैं,
लेकिन जब अंदर झाँको तो
पुर्जे - पुर्जे खुले हुए हैं !
हम सब कितने बँटे हुए हैं ।
तन से कहीं, कहीं हैं मन से
कहीं नयन से, कहीं चितवन से
देख रहे सारी दुनिया को
पर खुद सबसे छुपे हुए हैं !
हम सब कितने बँटे हुए हैं ।
कितना भी तुम करो समर्पण,
कोई टुकड़ा बचा ही लोगे !
पूरा नहीं किसी का कोई ,
दिल के हिस्से किए हुए हैं !
हम सब कितने बँटे हुए हैं ।
बुद्धि बड़ी, भावना छोटी
फिर इंसान की नीयत खोटी !
उलझन, किस ईश्वर को मानें ?
धर्म - जात में फँसे हुए हैं !
हम सब कितने बँटे हुए हैं ।
हम सब कितने बँटे हुए हैं
इक दूजे से कटे हुए हैं !
कब, क्या कहना, किसे, कहाँ पर ,
सब पहले से रटे हुए हैं !
सही व सटीक
जवाब देंहटाएंवंदन
मानव मन का परत दर परत आकलन करती और गहन चिन्तन को प्रेरित करती नायाब रचना मीना जी ! सादर नमस्कार !
जवाब देंहटाएंजीवन की वास्तविकता को दर्शाती सशक्त रचना, मन की गहराई में छुपा प्रेम ही ईश्वर है जब तक इसका अनुभव नहीं होगा, यह पीड़ा बनी रहेगी
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 26 जनवरी 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसत्य लिखा है ... हम हमेशा बंटे थे और आज भी बंटे ही हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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