शनिवार, 27 जुलाई 2019

यथार्थ

मैंने अपने खून के कुछ 
कतरे बोए थे,
उनको सींचा था मैंने 
अपनी साँसों से
अपने ख्वाबों को कूट-काटकर
खाद बनाकर डाली मैंने !!!

उन कतरों को धीमे-धीमे 
बढ़ता देखा,
नन्हें-नन्हें हाथ पाँव 
उनमें उग आए,
मुस्कानों की, किलकारी की
फूट रहीं थीं शाखाएँ जब
तब मैंने इक बाड़ बनाई
नन्हा पौधा पनप रहा था !!!

सारे हक, सारी खुशियाँ, 
सारे शौकों को किया इकट्ठा, 
बाड़ बनाई,
हर आँधी में, हर तूफां में
दिया सहारा !!!

धीरे धीरे पौधा बढ़कर 
वृक्ष हो गया,
अब मेरे समकक्ष हो गया,
उसके अपने हमजोली हैं
उसका है अपना आकाश,
मिट्टी भी उसकी अपनी है,
आँधी तूफां में डटकर अब
कर सकता है स्वयं सामना,
नहीं बाड़ की रही जरूरत !!!

इक दिन कड़ी धूप में मैंने
उसकी छाया जब माँगी तो
उसने उसकी कीमत चाही
मेरी कमियाँ मुझे गिनाईं !
मेरे पैरों के नीचे की,
धरती भी अब तो उसकी थी !!!

गुरुवार, 11 जुलाई 2019

सावन


बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?
परदेसी बादल, वसुधा के 
नयनों में सपने बोता है ?

बाग-बगीचों में अब भी,
झूले पड़ते हैं क्या सावन के ?
गीत बरसते हैं क्या नभ से,
आस जगाते प्रिय आवन के ?

भोर सबेरे हरसिंगार
टप-टप हीरे टपकाते हैं क्या ?
माटी में मिलते-मिलते भी
सुमन सुरभि दे जाते हैं क्या ?

क्या भीगी-भीगी धरती का,
तन-मन रोमांचित होता है ?
बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?

क्या भैया की बाट जोहती,
हैं अब भी दो विह्वल अँखियाँ ?
पनघट पर कुछ हँसी ठिठोली,
करती हैं क्या गुपचुप सखियाँ ?

पीपल के नीचे मस्तों का,
जमघट अब भी लगता है क्या ?
बच्चों की टोली का सावन
जल में छप-छ्प करता है क्या ?

क्या त्योहारों पर हृदयों का,
अब भी वही मिलन होता है ?
बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?

क्या मोती की लड़ियाँ अब भी
झरनों से झर-झर झरती हैं ?
शिव की गौरी-सी ललनाएँ,
पूजाथाल लिए फिरती हैं ?

क्या कजरी-बिरहा में, रिमझिम
सावन की घुलमिल जाती है ?
क्या वंशी की धुन पर राधा
अब भी खिंची चली आती है ?

क्या अब भी कोई मेघ, यक्ष की
पाती ले जाते रोता है ?
बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?

रविवार, 7 जुलाई 2019

ग़ाफ़िल नहीं हूँ !


नील नभ की छाँह में ठहरा पथिक हूँ,
मैं भटकता दर-ब-दर, बादल नहीं हूँ।

एक अंधी दौड़ है, ये दौर अंधा !

मैं किसी भी दौड़ में शामिल नहीं हूँ।

समझता हूँ, क्या खिलाफ़त, क्या मुहब्बत

बावरा तो हूँ मगर पागल नहीं हूँ। 

देखता हूँ मैं खुली आँखों से सपने,

पर स्वप्न में खोया रहूँ, ग़ाफ़िल नहीं हूँ।

मील का पत्थर सही, राहों में तो हूँ,

ये नहीं मुद्दा, कि मैं मंज़िल नहीं हूँ।

इक थके पंछी ने तूफां से कहा यूँ,

फिर उड़ूँगा, शिथिल हूँ, घायल नहीं हूँ।