भय से पीले पड़ गए,
तरुओं के सब पात।
काँटों सा तन में चुभे
शिशिर ऋतु का वात ।।
हुए दिगंबर वृक्ष ज्यों,
तापस त्यागे वस्त्र ।
हिमवृष्टि, ठंडी हवा,
शिशिर ऋतु के अस्त्र ।।
सूर्य ठिठुरता सा उगे,
चंदा करे विचार।
दीन दरिद्र कैसे सहें,
शिशिर ऋतु की मार ।।
मिलते श्रमिक-किसान को,
अल्पवस्त्र, अल्पान्न ।
उस पर तन को भेदता,
शिशिर ऋतु का बाण ।।
अन्न - धन की हो प्रचुरता,
प्रियतम का हो साथ ।
तब भलि लागे हर ऋतु
शिशिर, ग्रीष्म, बरसात ।
तरुओं के सब पात।
काँटों सा तन में चुभे
शिशिर ऋतु का वात ।।
हुए दिगंबर वृक्ष ज्यों,
तापस त्यागे वस्त्र ।
हिमवृष्टि, ठंडी हवा,
शिशिर ऋतु के अस्त्र ।।
सूर्य ठिठुरता सा उगे,
चंदा करे विचार।
दीन दरिद्र कैसे सहें,
शिशिर ऋतु की मार ।।
मिलते श्रमिक-किसान को,
अल्पवस्त्र, अल्पान्न ।
उस पर तन को भेदता,
शिशिर ऋतु का बाण ।।
अन्न - धन की हो प्रचुरता,
प्रियतम का हो साथ ।
तब भलि लागे हर ऋतु
शिशिर, ग्रीष्म, बरसात ।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, मीना दी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति, मीना दी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति, मीना दी।
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