जहाँ मिल रहे गगन धरा
मैं वहीं तुमसे मिलूँगी,
अब यही तुम जान लेना
राह एकाकी चलूँगी ।
ना कहूँगी फ़िर कभी
कि तुम बढ़ाओ हाथ अपना,
मैं नयन तुमको बसाकर
देखती हूँ एक सपना !!!
संग मेरे तुम ना आओ,
रूठ जाऊँ, मत मनाओ
पर तुम्हारी राह में मैं
फूल बनकर तो खिलूँगी !
फ़िर वहीं तुमसे मिलूँगी !!!
जहाँ मिल रहे गगन धरा
जहाँ मिल रहे गगन धरा
मैं वहीं तुमसे मिलूँगी ।
अब यही तुम जान लेना
राह एकाकी चलूँगी ।
श्वास की सरगम पे पल पल
नाम गूँजेगा तुम्हारा,
चेतना के रिक्त घट में
प्रेम की पीयूष धारा !
मैं उसी अमि धार से
अभिषेक प्रियतम का करूँगी,
बाट जोहूँगी युगों तक,
दीप बनकर मैं जलूँगी !
फिर वहीं तुमसे मिलूँगी !!!
जहाँ मिल रहे गगन धरा
चेतना के रिक्त घट में
प्रेम की पीयूष धारा !
मैं उसी अमि धार से
अभिषेक प्रियतम का करूँगी,
बाट जोहूँगी युगों तक,
दीप बनकर मैं जलूँगी !
फिर वहीं तुमसे मिलूँगी !!!
जहाँ मिल रहे गगन धरा
मैं वहीं तुमसे मिलूँगी ।
अब यही तुम जान लेना
राह एकाकी चलूँगी ।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 18 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत
जवाब देंहटाएंआहा दी बहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी।
प्रेम और समर्पण से ओतप्रोत उत्क़ष्ट सृजन आदरणीया दीदी.
जवाब देंहटाएंसादर
वाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब...।
बहुत प्यारी रचना.
जवाब देंहटाएंश्वास की सरगम पे पल पल
जवाब देंहटाएंनाम गूँजेगा तुम्हारा,
चेतना के रिक्त घट में
प्रेम की पीयूष धारा !
मैं उसी अमि धार से
अभिषेक प्रियतम का करूँगी,
बाट जोहूँगी युगों तक,
दीप बनकर मैं जलूँगी !
फिर वहीं तुमसे मिलूँगी !!!
बहुत सुंदर प्रिय मीना | समर्पण और अभिसार का रंग कमाल है |