इस धरा पर तो मधुमास फिर छा गया,
किंतु पतझड़ मेरे मन की वासी हुई ।
शब्द परदेस में जाके सब बस गए,
भावनाएँ मेरी अब प्रवासी हुईं ।।
जिसके प्रतिनाद की थी प्रतीक्षा मुझे,
मन की घाटी से वह गीत गुजरा नहीं ।
रोक लेना जिसे, मेरा अधिकार था,
कुछ क्षणों को भी वह भाव ठहरा नहीं ।
राह तक ना सकी उसकी प्रतिबद्धता,
मेरे आने में देरी जरा - सी हुई ।।
शब्द परदेस में जाके सब बस गए
भावनाएँ मेरी अब प्रवासी हुईं ।।
सुख की मैंने कभी, खोज ना की कहीं,
वेदना से मेरा प्रेम शाश्वत रहा।
जिसको पाना असंभव, वही चाह थी,
मेरी चाहत का हर अंक अद्भुत रहा।
खिलखिलाहट सजाती रही मंच को,
कैद परदों के भीतर उदासी हुई ।।
शब्द परदेस में जाके सब बस गए
भावनाएँ मेरी अब प्रवासी हुईं ।।
जीविका का नहीं, प्रश्न जीने का था,
खोज जीवन की हर श्वास जारी रही ।
एक टुकड़ा भी जीवन का दे ना सकी,
ज़िंदगी, ज़िंदगीभर भिखारी रही।
कोष श्वासों का भी, यूँ ही लुटता गया,
कुछ मिला ही नहीं, जब तलाशी हुई ।।
शब्द परदेस में जाके सब बस गए
भावनाएँ मेरी अब प्रवासी हुईं ।।
© - मीना शर्मा