लोग पुराने जब जाते हैं,
कितनी यादें दे जाते हैं !
कसमें भी कुछ काम ना आतीं,
वादे भी सब रह जाते हैं !
पीपल के पत्तों के भी
पीले होने की रुत होती है,
पर मानव के साथी क्यूँकर
बेरुत छोड़ चले जाते हैं ?
लोग पुराने जब जाते हैं,
कितनी यादें दे जाते हैं !
यादें बरगद के मूलों सी
मीलों फैलें हृदय धरा में,
संग साथ के वे सीमित क्षण
बिछड़, अपरिमित हो जाते हैं !
लोग पुराने जब जाते हैं
कितनी यादें दे जाते हैं।
सूखी - सूखी नयन नदी पर
बरस पड़ें जब घन भावों के,
सजल, सघन, संचित बूँदों से
तब तट युग्म नमी पाते हैं।
लोग पुराने जब जाते हैं
कितनी यादें दे जाते हैं !
कभी गोद में हमको लेकर
जॊ दिखलाते चंदा मामा !
हमें बिलखता छोड़, गगन के
तारे वे क्यों बन जाते हैं ?
लोग पुराने जब जाते हैं
कितनी यादें दे जाते हैं।
विशेष : इस कविता का पहला छंद ना जाने क्यों कल सुबह से मन में घुमड़ता रहा था। विचार भी आया, ये कैसी पंक्तियाँ आ रही हैं मन में ? अजीब सी बेचैनी भी थी दिलो दिमाग में। फिर सोचा कि कल रात देखे गए एक भावुक व्लॉग (vlog) का असर होगा, जिसमें शहर के वासी को बरसों बाद गाँव लौटने पर पता चलता है कि उसके गाँव के कुछ पुराने लोग, कुछ साथी अब नहीं रहे।
खैर, मैंने दोपहर में करीब एक बजे पंक्तियों को लिख लेने का सोचा। दूसरा छंद पूरा हुआ कि मम्मी का फोन आया। मेरी मुँहबोले भाई की धर्मपत्नी, जिन्हें पच्चीस साल से लगातार राखी बाँधती रही हूँ मैं, वे अस्पताल में वेंटिलेटर पर हैं। शायद एकाध घंटा और निकालें। मैं स्तब्ध रह गई। भाभी उम्र में मेरी मम्मी से दो तीन साल ही छोटी थीं। मुझे तो गोद में खिलाया है। बड़ा आत्मीय रिश्ता है उनसे।
बेसब्र होकर उनकी बहू को फोन किया। वह रोते रोते बोली कि दीदी, माँ अभी अभी चली गईं।
कविता के अंतिम दो छंद आँखों से झरते अश्रुओं के साथ पाँच मिनट में उतर आए। दिल से दिल के ऐसे रिश्तों के जुड़ाव और बिछोह को छठी इंद्रीय ने अनेक बार महसूस किया और चेताया है। परंतु इस रूप में पहली बार चेताया है।