मंगलवार, 30 अक्टूबर 2018

अपना कहाँ ठिकाना है ?

मन रे, अपना कहाँ ठिकाना है ?
ना संसारी, ना बैरागी,
जल सम बहते जाना है,
बादल जैसे संग पवन के 

यहाँ वहाँ उड़ जाना है !
जोगी जैसे अलख जगाते 

नई राह मुड़ जाना है !
नहीं घरौंदा, ना ही डेरा, 
धूनी नहीं रमाना है !
मन रे, अपना कहाँ ठिकाना है ?

मोहित होकर रह निर्मोही, 

निद्रित होकर भी जागृत!
चुन असार से सार मना रे, 
विष को पीकर बन अमृत !
काहे सोचे, कौन हमारा, 
कच्चा ताना बाना है!
टूटा तार, बिखर गई वीणा, 
फिर भी तुझको गाना है!!!
मन रे, अपना कहाँ ठिकाना है ?

सपनों की इस नगरी में 
कब तक भटकेगा दर दर
स्वप्न को सत्य समझकर 
रह जाएगा यहीं उलझकर!
निकल जाल से, क्रूर काल से 
तुझको आँख मिलाना है
नाटक खत्म हुआ तो 
भ्रम का परदा भी गिर जाना है !
मन रे, अपना कहाँ ठिकाना है ?



मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018

फिर कुछ प्रश्न......

चूरा चूरा चाँद हो गया,
टुकड़े टुकड़े सारे तारे !
मेरे पास यही दोनों थे,
अब तुमको मैं क्या दूँ ? बोलो !!!

निर्वासित शापित शब्दों में,
इतनी शक्ति नहीं बची है,
अब भी तुमसे प्यार मुझे,
ये किन शब्दों में बोलूँ ? बोलो !!!

बेनामी रिश्ते की पीड़ा
पंछी और पेड़ से पूछो,
दुनिया के रस्मो रिवाज में
इस रिश्ते को भूलूँ ? बोलो !!!

इस दिल ने क्यों मान लिया हक
किसी गैर की धड़कन पर,
कैद कहीं इस दिल को कर दूँ
या अधिकार सँजो लूँ ? बोलो !!!

अगर कहीं तुम मिल जाओ तो
कह दूँ जो मुझको कहना है 
या फिर उस वादे की खातिर
अपने नयन भिगो लूँ ? बोलो !!!

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