मंगलवार, 30 अक्टूबर 2018

अपना कहाँ ठिकाना है ?

मन रे, अपना कहाँ ठिकाना है ?
ना संसारी, ना बैरागी,
जल सम बहते जाना है,
बादल जैसे संग पवन के 

यहाँ वहाँ उड़ जाना है !
जोगी जैसे अलख जगाते 

नई राह मुड़ जाना है !
नहीं घरौंदा, ना ही डेरा, 
धूनी नहीं रमाना है !
मन रे, अपना कहाँ ठिकाना है ?

मोहित होकर रह निर्मोही, 

निद्रित होकर भी जागृत!
चुन असार से सार मना रे, 
विष को पीकर बन अमृत !
काहे सोचे, कौन हमारा, 
कच्चा ताना बाना है!
टूटा तार, बिखर गई वीणा, 
फिर भी तुझको गाना है!!!
मन रे, अपना कहाँ ठिकाना है ?

सपनों की इस नगरी में 
कब तक भटकेगा दर दर
स्वप्न को सत्य समझकर 
रह जाएगा यहीं उलझकर!
निकल जाल से, क्रूर काल से 
तुझको आँख मिलाना है
नाटक खत्म हुआ तो 
भ्रम का परदा भी गिर जाना है !
मन रे, अपना कहाँ ठिकाना है ?



4 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (27-07-2020) को 'कैनवास' में इस बार मीना शर्मा जी की रचनाएँ (चर्चा अंक 3775) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    हमारी विशेष प्रस्तुति 'कैनवास' (संपूर्ण प्रस्तुति में सिर्फ़ आपकी विशिष्ट रचनाएँ सम्मिलित हैं ) में आपकी यह प्रस्तुति सम्मिलित की गई है।
    --
    -रवीन्द्र सिंह यादव

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  2. अत्यंत श्रेष्ठ कविता ! अभिनंदनीय !

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