दिन पर दिन बढ़ती जा रही है
दिनभर की भाग दौड़,
कुछ उम्र, कुछ जिम्मेदारियों
और कुछ सेहत के
तकाजों का जवाब देते-देते,
पस्त हो जाता है शरीर और मन,
दिन भर !!!
कभी तितलियों और पंछियों को
निहारते रहने वाली निगाहें,
अब दिनभर,
मोबाइल और लैपटॉप से जूझतीं हैं,
ऑनलाइन रहती हैं निगाहें दिन भर,
और मन रहता है ऑफलाइन।
बगिया के पौधों को दिन में कई कई बार
सहलानेवाले हाथ,
अब जीवन संघर्ष की उलझी डोर को
सुलझाते-सुलझाते दुखने लगे हैं।
दिन तो गुजर जाता है
पर जब रात गहराती है,
मन की सुनसान वीथियों में
तुम्हारा हाथ पकड़कर चल देते हैं
मेरे मनोभाव,
उस छोटे से कोने की तलाश में,
जहाँ चिर विश्रांति मिल सके।
सुनो, एक सवाल पूछना है।
इस तलाश का अंत कब होगा?