माघ की मरमरी ठंड को ओढ़कर,
धूप निकली सुबह ही सुबह सैर पर,
छूट सूरज की बाँहों से भागी, मगर
टूटे दर्पण-सी बिखरी इधर, कुछ उधर !
सूखे पत्तों पे कुछ पल पसरती रही,
धूप पेड़ों से नीचे फिसलती रही,
धूप थम-थम के बढ़ती रही दो पहर,
मिल के पगली पवन से सिहरती रही !
चाय की प्यालियों में खनकती रही,
गुड़ की डलियों में घुलकर पिघलती रही
खींचकर जब रजाई, उठाती है माँ,
धूप चादर में घुस कुनमुनाती रही !
गुनगुनी - गुनगुनी धूप उतरी शिखर,
स्वर्ण आभा से पर्वत को नहला गई,
नर्म गालों को फूलों के, सहला गई,
बस अभी आ रही, कह के बहला गई !
जिद की खेतों ने, 'रुक जाओ ना रात भर'
धूप अँखियों से उनको डपटती रही !
कुछ अटकती रही, कुछ भटकती रही,
हर कहीं थोड़ा - थोड़ा टपकती रही !
घास का मखमली जब बिछौना मिला,
खेलने को कोई मृग का छौना मिला,
साँझ आने से पहले ही वह खो गई,
बँध के सूरज की बाँहों में वह सो गई !