शनिवार, 17 जून 2017

बंद दरवाजों की संस्कृति


यह बंद दरवाजों की संस्कृति है,
यहाँ बड़ी शांति है !
महानगरों की ऊँची अट्टालिकाएँ
और डिबिया से घर !

नहीं नजर आती,
आचार, पापड़ और बड़ियाँ
सुखाती, उठाती, 
चाची,ताई और भाभियाँ ।
नहीं जगाता कोई किसी को,
भरी दोपहरी में !

'दीदी, खरी कमाई के पैसे दो,
भाभी, मोजे के कितने फंदे?
कितने उल्टे, कितने सीधे ?
बेटी, ये मेरी चिट्ठी पढ़ दे'

गुम हो गई हैं वे आवाजें,
वो ठहाकेदार हँसी मजाक,
वो बच्चों की चिल्लपों,
यहाँ बड़ी शांति है !

सिर पर रखी टोकरी में
देवी-यल्लम्मा को बिठाए,
वो बूढ़ी याचिका,
एक मुट्ठी चावल के बदले
मिलने वाली करोड़ों की दुआएँ ...
"देवा ! माझ्या मुलीला सुखी राहू दे !"

मोर पंख की टोपी लगाए,
घुंघरू और खंजड़ी की ताल पर
"यमुनेच्या तीरी आज पाहिला हरी"
यह भजन गाता वासुदेव
वे भी यहाँ नहीं आते,
यहाँ बड़ी शांति है !

रोबोट से यंत्रचालित
नापकर मुस्कुराते
तौलकर बोलते,
आत्मकेंद्रित,सभ्य और शालीन,
लोगों की यह बस्ती है.
यहाँ बड़ी शांति है 

अंतर्जाल के आभासी रिश्तों में
अपनापन ढूँढ़ने की कोशिश,
सन्नाटे से उपजता शोर
उस शोर से भागने की कोशिश !

अशांत मनों की नीरव शांति !
यह महानगरों की
फ्लैट संस्कृति है,
बंद दरवाजों की संस्कृति है,
यहाँ बड़ी शांति है !


सोमवार, 12 जून 2017

बरस बीत गया....

पिछले वर्ष 12जून 2016 को मैंने पहली पोस्ट "बंदी चिड़िया"के साथ इस ब्लॉग की शुरूआत की थी।
  वास्तव में इससे पहले मैंने ब्लॉग लेखन के बारे में सुना भर था । कालेज के जमाने से लेखन का शौक था। पापा को भजनों का शौक रहा। अच्छा गाते भी थे और हारमोनियम भी बजाते थे। भजनों से भरी कई डायरियाँ पापा के पास अभी भी हैं। भजन संग्रह का उन्हें काफी शौक रहा । कुछ भजन पापा खुद भी लिखते थे।
उनकी देखादेखी हम बहनों ने भी कई भजन लिखे । मैं कविताएँ एवं गजल जैसा कुछ लिखती रही, किंतु छुपाकर । घर के रूढ़िवादी माहौल में उन्हें बाहर लाने का अर्थ था - अपनी पढ़ाई लिखाई बंद करवा कर घर बैठ जाना ।
  विवाह के बाद तो पारिवारिक जिम्मेदारियों में लिखने का अवकाश ही नहीं मिल पाता था । वाचन में रुचि एवं भाषा की शिक्षिका होने से साहित्य से जुड़ाव बना रहा ।
 लिखने की दूसरी पारी की शुरूआत तीन वर्ष पूर्व अपने पुत्र के अठारहवें जन्मदिन पर एक कविता से की । वह कविता थी - माँ की चिट्ठी । उसके बाद 'बंदी चिड़िया' एवं अन्य कविताएँ लिखीं । कुछ स्थानीय अखबारों में प्रकाशित भी हुई किंतु प्रकाशन को गंभीरता से ना लेते हुए मैंने शौकिया लेखन ही जारी रखा ।
    पिछले वर्ष बहन ने हमारे शहर की ही एक गुजराती लेखिका के ब्लॉग की लिंक भेजी। उसके बाद से मुझे भी लगने लगा कि मैं भी अपना ब्लॉग बनाकर अपनी अभिव्यक्ति को सबके साथ साझा करूँ।  ब्लॉग बनाने की तकनीकी जानकारी शून्य थी। यू ट्यूब से ही सीखकर बनाया था । जैसा बन पाया था उसी पर कुछ पुरानी व कुछ नई रचनाओं को पोस्ट करना शुरू किया।
कहते हैं ना कि 'जहाँ चाह, वहाँ राह '..... दुनिया में आज भी अच्छे लोग हैं और सीखने की चाह रखने वालों के लिए कदम कदम पर शिक्षक हैं । ऐसे ही एक मार्गदर्शक और शुभचिंतक की मदद से मेरे ब्लॉग को यह नया स्वरूप प्राप्त हुआ और एक प्यारा सा नया नाम भी मिला -- 'चिड़िया'....
एक वर्ष में इस ब्लॉग पर 80 पोस्ट प्रकाशित हो चुकी हैं जिसके लिए  मैं अपने मार्गदर्शक की बहुत-बहुत शुक्रगुजार हूँ ।
 आप सभी पाठकों और ब्लॉगर मित्रों ने मेरी उम्मीद से भी ज्यादा स्नेह और प्रोत्साहन दिया है जिससे मेरी लेखनी को एक नया जीवन मिला है । मैं तहेदिल से आप सबकी आभारी हूँ ।

अंत में अपनी ही एक कविता की पंक्तियाँ....
"जिंदगी हर पल कुछ नया सिखा गई,
ये दर्द में भी हँसकर जीना सिखा गई...
काँटे भी कम नहीं थे गुलाबों की राह में,
खुशबू की तरह हमको बिखरना सिखा गई...
अच्छाइयों की आज भी कदर है जहाँ में,
दामन में दुआओं को ये भरना सिखा गई..."

शनिवार, 10 जून 2017

एक और बचपना - 'बकबक'

लिखना-विखना खास नहीं कुछ,
ये तो सारी बकबक है...
सुनने को तैयार नहीं तुम,
किसे सुनाऊँ, उलझन है !!!

मेरी बकबक सुन-सुनकर तुम,

बोर हो गए ना आखिर ?
चिट्ठी लिखकर 'मेल' करूँगी,
पढ़ लेना जब चाहे दिल....
(अरे बाबा, वो मेल मिलाप वाला
'मेल' नहीं, Mail - मेल ! )

फिर भी व्यस्त हुए तो कहना --

"रोज-रोज क्या झिकझिक है ?"
लिखना विखना खास नहीं कुछ,
ये तो सारी बकबक है !!!

मेरी बकबक में मेरे,

जीवन की करूण कहानी है
गुड़िया, चिड़िया, तितली है,
इक राजा है इक रानी है !!!
( याद आया कुछ ? )

परीदेश की राजकुमारी,

स्वप्ननगर का राजकुमार
हाथी, घोड़े, उड़नतश्तरी,
कई शिकारी, कई शिकार !

कितना कुछ कहना है मुझको,

लेकिन वक्त जरा कम है !
सुनने को तैयार नहीं तुम,
किसे सुनाऊँ, उलझन है !!!

ये खाली पन्ने सुनते हैं,

मेरे मन की सारी बात
बोर ना होते कभी जरा भी,
चाहे दिन हो, चाहे रात !

इन पर आँसू भी टपकें तो,

ये कहते हैं - रिमझिम है !
कितना कुछ कहना है मुझको,
लेकिन वक्त जरा कम है !!!

लिखना-विखना खास नहीं कुछ....


गुरुवार, 1 जून 2017

फासला क्यूँ है ...



ज़िंदगी तेरे-मेरे बीच
फासला क्यूँ है ?
तुझको पाने का, खोने का,
सिलसिला क्यूँ है ?

अपने जज्बातों को
दिल में ही छुपाए रखा,
और हर आह को
ओठों में दबाए रखा !
फिर जमाने को मेरी,
खुशियों से शिकवा क्यूँ है ?

मेरे सीने में धड़कती है
तू धड़कन बनकर,
और कदमों से लिपट
जाती है, बंधन बनकर !
मेरी तन्हाई में, यादों का
काफिला क्यूँ है ?

जिस्म मिट जाए, मगर
रूह ना मिट पाएगी,
वो तो खुशबू है,
फिज़ाओं में बिखर जाएगी !
फिर ये दरिया, मेरी आँखों से
बह चला क्यूँ है ?

ज़िंदगी तेरे- मेरे बीच
फासला क्यूँ है ?