गुरुवार, 26 नवंबर 2020

स्वर्ण-से क्षण

स्वर्ण संध्या, स्वर्ण दिनकर

सब दिशाएँ सुनहरी !

बिछ गई सारी धरा पर

एक चादर सुनहरी !

आसमाँ पर बादलों में

इक सुनहरा गाँव है,

स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,

स्वर्ण-से ये भाव हैं ।


सोनपरियों-सी सुनहरी,

सूर्यमुखियों की छटा ।

पीत वस्त्रों में लिपटकर

सोनचंपा महकता। 

सुरभि से उन्मत्त होकर

नाचती पागल पवन !

पीत पत्तों का धरा पर

स्वर्णमय बिछाव है ।

स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,

स्वर्ण-से ये भाव हैं ।


सुनहरे आकाश से अब

स्वर्ण किरणें हैं उतरतीं ।

सुनहरी बालू पे जैसे

स्वर्ण लहरें नृत्य करतीं ।

पिघलता सोना बहे औ'

स्वर्ण - घट रीता रहे !

प्रकृति का या नियति का

यह अजब अभाव है।

स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,

स्वर्ण-से ये भाव हैं ।


हैं हृदय के कोष में,

संचित सभी यादें सुनहली ।

और अँखियों में बसी है

रात पूनम की, रुपहली।

तुम मेरे गीतों को, जलने दो 

विरह की अग्नि में !

आग में तपकर निखरना

स्वर्ण का स्वभाव है। 

स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,

स्वर्ण-से ये भाव हैं ।

----- ©मीना शर्मा


44 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 27-11-2020) को "लहरों के साथ रहे कोई ।" (चर्चा अंक- 3898) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।

    "मीना भारद्वाज"

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  2. आग में तपकर निखरना
    स्वर्ण का स्वभाव है।
    वाह!! प्रिय मीना 👌👌👌👌
    स्वर्ण मन से उमड़े ये स्वर्ण भाव अद्भुत हैं। सुंदर शब्द चित्र जो सुनहरी साँझ का स्वर्णिम चित्र प्रस्तुत करता है।। मैं भी कई बार इस तरह की सुनहरी शामों का अवलोकन किया है पर शायद मैं कभी इतने सुंदर शब्दों में उसे ना पिरो पाऊँ। माँ शारदे भावों का ये प्रवाह अक्षुण रखे, मेरी यही कामना है। हार्दिक स्नेह के साथ शुभकामनायें ❤❤🌹🌹

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  4. स्वर्ण संध्या, स्वर्ण दिनकर

    सब दिशाएँ सुनहरी !

    बिछ गई सारी धरा पर

    एक चादर सुनहरी !..मन मोह जाता है दी आपका सृजन।
    बहुत ही सुंदर सराहनीय।

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  5. स्वर्ण से दिपदिपाते भाव आप्लावित कर रहे हैं । अति सुन्दर ।

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    1. बहुत बहुत आभार एवं स्वागत आदरणीया अमृताजी

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  6. स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,
    स्वर्ण-से ये भाव हैं...

    बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना 🙏

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आदरणीया शरद जी। मेरा ब्लॉग फॉलो करने के लिए भी हृदय से धन्यवाद।

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  7. उत्तर
    1. बहुत बहुत आभार एवं स्वागत आदरणीय यशवंत जी

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  8. तुम मेरे गीतों को, जलने दो
    विरह की अग्नि में !
    आग में तपकर निखरना
    स्वर्ण का स्वभाव है।
    स्वर्ण-से क्षण, स्वर्ण-सा मन,
    स्वर्ण-से ये भाव हैं ।
    लाजवाब गीत...बहुत ही अप्रतिम।
    वाह!!!

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  9. आदरणीया मैम , सब से पहले तो मेरे ब्लॉग पर आ कर मुझे अपना आशीष देने के लिए आपका हृदय अत्यंत आभार और प्रणाम। आपकी यह कविता पढ़ कर होठों पर अनायास ही मुस्कराहट आ जाती है। एक बहुत ही सुंदर शाम की छवि जिसको पढ़ते ही मन में शाम को आकाश में फैली लालिमा और अस्त हो रहे कुछ सुनहरे और कुछ नारंगी सूर्यदेव की छवि आ जाती है। शाम से जुड़े सारे भाव दर्शा दिये आपने ।
    मैं ने इस कविता को दो बारी पढ़ा , एक बार तो दोपहर में और दुसरी बार अभी शाम को सूर्यास्त देखते देखते, तो मन आनंद से भर गया। इतनी सुंदर रचना के लिए आपका हृदय से आभार और पुनः प्रणाम।

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  10. बहुत सुंदर सृजन ।
    प्राकृतिक सौंदर्य के साथ सुंदर रचना।

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    1. बहुत बहुत आभार आदरणीया कुसुम कोठारी जी

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  11. बहुत मधुर रचना...
    हार्दिक बधाई !!!

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    1. बहुत बहुत आभार एवं स्वागत आदरणीया शरद जी

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  12. सोनपरियों-सी सुनहरी,

    सूर्यमुखियों की छटा ।

    पीत वस्त्रों में लिपटकर

    सोनचंपा महकता।

    सुरभि से उन्मत्त होकर

    नाचती पागल पवन !


    अहा!
    कितना सुन्दर।

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    1. बहुत बहुत आभार एवं स्वागत आदरणीया सधुचंद्रजी

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    1. बहुत बहुत आभार एवं स्वागत आदरणीया अनिताजी।

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  14. बहुत सुन्दर शब्द विन्यास ... भावों की स्पष्टता रचना को गहन और सुन्दरता प्रदान कर रही है ... बाखूबी उतारा है प्राकृति और मन के भावों को ...

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  15. सब कुछ स्वर्णिम,
    क्या सुनहरे भाव हैं।

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  16. आपकी इस कविता को बहुत विलम्ब से पढ़ा मैंने। अच्छा होता यदि शीघ्र पढ़ लेता। प्रकृति के सौंदर्य का ऐसा अनुपम काव्यमय चित्रण कभी-कभी ही पढ़ने को मिलता है। अभिनन्दन आपका मीना जी।

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    1. आदरणीय जितेंद्रजी,बहुत बहुत आभार मेरी रचना पर अपनी अनमोल प्रतिक्रिया देने हेतु।

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  17. अद्भुत काव्य चित्र ! अच्छा लगा एक बार फिर पढ़कर |

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