रविवार, 30 अप्रैल 2017

रात

सुरमई पलकों में सपने,
बुन गई फिर रात,
चुपके से बातें हमारी
सुन गई फिर रात

बाग के हरएक बूटे पर
बिछी कुछ इस तरह,
शबनमी बूँदों में भीगी
नम हुई फिर रात...

रातरानी की महक से
फिर हवा बौरा गई,
इक गजल महकी हुई सी
लिख गई फिर रात...

सरसराहट पत्तियों की,
कह गई हौले से कुछ,
फिर हुई कदमों की आहट,
रुक गई फिर रात...

मेरी निंदिया को चुराकर,
साथ अपने ले गई,
कौन जाने दूर कितनी,
रह गई फिर रात...

सोमवार, 24 अप्रैल 2017

समय - समय की बात

समय - समय पर,
'समय - समय की बात'
होती है...
एक ही बात,
किसी समय खास,
तो किसी और समय,
आम होती है...

मुहब्बत के इजहार का वक्त,
अब समय सारिणी बताएगी,
माँ भी बेटे से मिलने
अब समय लेकर आएगी....

हँसने का, रोने का,
रूठने - मनाने का,
चुप रहने या गाने का,
प्यार का, तकरार का,
पतझड़ का, बहार का,

हर बात का समय जनाब,
अब कीजिए मुकर्रर,
जज्बातों को आना होगा,
दिल में, समय लेकर....

आदमी अब व्यस्त है,
भावनाएँ त्रस्त हैं,
दरवाजा खटखटाती हैं,
ना खुलने पर बेचारी,
उलटे पाँवों लौट जाती हैं....

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

जीवित देहदान

ज़िंदगी की प्रयोगशाला में
ज़िंदा शरीरों पर
किए जाते हैं प्रयोग,
यहाँ लाशों का नहीं
कोई उपयोग !
शर्त उसपर ये कि
आत्मा भी ज़िंदा हो
बची उस शरीर में !

और वह ज़िंदा शरीर
सहता हर चीर - फाड़
पूरे होशो हवास में !
वक्त, उम्र, हालात,
ये तीन डॉक्टर, और
उनकी पूरी टीम यानि
उसी ज़िंदा शरीर के
सगे, अपने, दोस्त, प्यारे,
मिलकर करते प्रयोग
अनेक प्रकार के !

तरह तरह की यातनाएँ,
शारीरिक, मानसिक,
हर प्रताड़ना - वंचना से,
गुजारकर परखते हैं
लिखते जाते हैं शोधग्रंथ,
निष्कर्ष नए - नए !

इस सारी प्रक्रिया के बाद भी
जो बच जाता है ज़िंदा,
उस पर फूल बरसाए जाते हैं
नवाजा जाता है उसे
महानता के खिताब से
सजा दिया जाता है
म्यूजियम में वह जिंदा शरीर,
ताकि और लोग भी ले सकें
प्रेरणा 'जीवित देह'दान की !

रविवार, 9 अप्रैल 2017

चलता चल

चलता चल

चलता चल, चलता चल,
झरने सा बहता चल !

कंटकों से भरा मार्ग,
पथरीली राह है ,
काँच की किरचें बिछीं,
पैर हुए लहुलुहान ?
हँसता चल !
चलता चल....

प्रीत जिनसे है अधिक,
उनसे ही मिलती हैं
सौगातें दर्द की,
पीड़ा सह, वज्र सम,
बनता चल !
चलता चल....

फूलों की घाटियाँ,
हरियाली वादियाँ,
स्वप्न ही सही मगर,
सपनों में रंग नए ,
भरता चल !
चलता चल....

तू अचूक लक्ष्य पर,
तीर का संधान कर,
नब्ज पकड़ वक्त की ,
सही समय,सही कार्य,
करता चल !

चलता चल, चलता चल,
झरने सा बहता चल ।।

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

ओ मेरे शिल्पकार !

ओ मेरे शिल्पकार,
पत्थरों को तराशनेवाले कलाकार,
आओ तुम्हें कुछ पत्थर दे दूँ,
गढ़ पाओ तो गढ़ लेना
एक नई सूरत नई मूरत,
कल्पना करो साकार !
ओ मेरे शिल्पकार !

हालातों को सँभालते-सँभालते,
पत्थर हो गईं संवेदनाएँ,
आँसुओं को रोकते-रोकते
पथरा गईं आँखें,
तराश लो इन पत्थरों को,
दो कोई आकार !
ओ मेरे शिल्पकार !

हाड़ माँस का यह शरीर भी,
पत्थर ही समझ लो,
बेजान साँसे, निष्प्राण धड़कनें,
चलती हैं,चलने दो !
उठाओ तुम छेनी हथौड़ा
डरो मत, करो प्रहार !
ओ मेरे शिल्पकार !

डरो मत, नहीं टपकेगा,
खून उन जख्मों से
हाँ, दर्द रिस सकता है !
और दर्द का तो नहीं होता,
कोई रंग - रूप - आकार !
ओ मेरे शिल्पकार !

तराशते तराशते जब,
पहुँच जाओ उस हिस्से तक,
जिसे दिल कहते हैं,
रुक जाना तब, मेरे शिल्पकार !
वह अभी नहीं हुआ पत्थर,
बसता है उसमें प्यार !
ओ मेरे शिल्पकार !