आखिर किसलिए ?
रख दी गिरवी यहाँ अपनी साँसे
पर किसी को फिकर तो नहीं
बहते बहते उमर जा रही है
आया साहिल नजर तो नहीं....
वक्त अपने लिए ही नहीं था
सबकी खातिर थी ये जिंदगी,
जो थे पत्थर के बुत, उनको पूजा
उनकी करते रहे बंदगी,
जिनकी खातिर किया खुद को रुसवा
उनको कोई कदर तो नहीं....
अपना देकर के चैन-औ-सुकूँ सब
खुशियाँ जिनके लिए थीं खरीदी,
दर पे जब भी गए हम खुदा के
माँगी जिनके लिए बस दुआ ही,
वो ही जखमों पे नश्तर चुभाकर
पूछते हैं, दर्द तो नहीं ?...
रख दी गिरवी यहाँ अपनी साँसे,
पर किसी को फिकर तो नहीं
बहते-बहते उमर जा रही है,
आया साहिल नजर तो नहीं...
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