याद कहाँ रहता है हम दीवानों को !
मौत खींचकर पास बुला ही लेती है,
जाना, जब जलते देखा परवानों को !
एक समय जो मंदिर - मस्जिद जाती थी,
राह वही जाती है अब मयखानों को !
सोच समझकर लफ्जों को फेंका करिए,
तीर नहीं आते फिर लौट कमानों को !
गुलशन के आजू - बाजू आबादी है,
कौन बसाया करता है वीरानों को !
वक्त पड़े तो ले लेना हमसे हिसाब,
लिखकर रखना तुम अपने एहसानों को !
छोड़ गए जिनको मयकश भी, साकी भी,
वक्त भरेगा उन खाली पैमानों को !
दर्द, कराहों, आहों की आदत ऐसी,