मन रे, अपना कहाँ ठिकाना है ?
ना संसारी, ना बैरागी,
जल सम बहते जाना है,
बादल जैसे संग पवन के
यहाँ वहाँ उड़ जाना है !
जोगी जैसे अलख जगाते
नई राह मुड़ जाना है !
मोहित होकर रह निर्मोही,
निद्रित होकर भी जागृत!
ना संसारी, ना बैरागी,
जल सम बहते जाना है,
बादल जैसे संग पवन के
यहाँ वहाँ उड़ जाना है !
जोगी जैसे अलख जगाते
नई राह मुड़ जाना है !
नहीं घरौंदा, ना ही डेरा,
धूनी नहीं रमाना है !
मन रे, अपना कहाँ ठिकाना है ?धूनी नहीं रमाना है !
मोहित होकर रह निर्मोही,
निद्रित होकर भी जागृत!
चुन असार से सार मना रे,
विष को पीकर बन अमृत !
विष को पीकर बन अमृत !
काहे सोचे, कौन हमारा,
कच्चा ताना बाना है!
कच्चा ताना बाना है!
टूटा तार, बिखर गई वीणा,
फिर भी तुझको गाना है!!!
फिर भी तुझको गाना है!!!
मन रे, अपना कहाँ ठिकाना है ?
सपनों की इस नगरी में
कब तक भटकेगा दर दर
कब तक भटकेगा दर दर
स्वप्न को सत्य समझकर
रह जाएगा यहीं उलझकर!
रह जाएगा यहीं उलझकर!
निकल जाल से, क्रूर काल से
तुझको आँख मिलाना है
तुझको आँख मिलाना है
नाटक खत्म हुआ तो
भ्रम का परदा भी गिर जाना है !
भ्रम का परदा भी गिर जाना है !
मन रे, अपना कहाँ ठिकाना है ?
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (27-07-2020) को 'कैनवास' में इस बार मीना शर्मा जी की रचनाएँ (चर्चा अंक 3775) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
हमारी विशेष प्रस्तुति 'कैनवास' (संपूर्ण प्रस्तुति में सिर्फ़ आपकी विशिष्ट रचनाएँ सम्मिलित हैं ) में आपकी यह प्रस्तुति सम्मिलित की गई है।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
बेहतरीन रचना मीना जी
जवाब देंहटाएंअत्यंत श्रेष्ठ कविता ! अभिनंदनीय !
जवाब देंहटाएंसत्य सृजन।
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