एक मुद्दत बाद खुद के साथ आ बैठे
यूँ लगा जैसे कि रब के साथ आ बैठे !
कौन कहता है कि, तन्हाई रुलाती है,
हम खयालों में, उन्हीं के साथ जा बैठे।
वक्त, इतना वक्त, देता है कभी - कभी
इक ग़ज़ल भूली हुई हम गुनगुना बैठे।
लौटकर हम अपनी दुनिया में, बड़े खुश हैं
काँच के टुकड़ों से, गुलदस्ता बना बैठे ।
कोई कर लेता है कैसे, उफ्फ ! सौदा दोस्ती का
हम हलफ़नामे में, अपनी जाँ लिखा बैठे ।
एक अरसे बाद खोला, उस किताब को
फड़फड़ाते सफ़हे हमको, मुँह चिढ़ा बैठे।
छाँव में जिनकी पले, खेले, बढ़े,
उन दरख्तों पे क्यूँ तुम, आरी चला बैठे।
कौन कहता है कि, तन्हाई रुलाती है,
जवाब देंहटाएंहम खयालों में, उन्हीं के साथ जा बैठे।
वक्त, इतना वक्त, देता है कभी - कभी
इक ग़ज़ल भूली हुई हम गुनगुना बैठे...बहुत ही ख़ूबसूरती से मनोभावों को पिरोया है आपने...।सुंदर रचना...।
बहुत बहुत आभार एवं स्वागत आदरणीया जिज्ञासा जी
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (२६-११-२०२०) को 'देवोत्थान प्रबोधिनी एकादशी'(चर्चा अंक- ३८९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
बहुत बहुत आभार प्रिय अनिता
हटाएंबहुत सुंदर प्रिय मीना। खुद से संवाद करते मन से उमड़े हरेक शेर में कहानी छिपी हुई है।
जवाब देंहटाएंकोई कर लेता है कैसे, उफ्फ ! सौदा दोस्ती का
हम हलफ़नामे में, अपनी जाँ लिखा बैठे
बड़ी सादगी से लिखी गई इस रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई
❤🌹❤🌹
बहुत बहुत आभार एवं स्नेह प्रिय रेणु
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २७ नवंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत धन्यवाद प्रिय श्वेता
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय जोशी सर
हटाएंप्रभावशाली रचना का सृजन हुआ है आपकी लेखनी से। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया मीना जी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीया सिन्हा जी
हटाएंवाह स्वयं में जा बैठना एक आलोकिक अनुभूति है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना हर बंध खुद का अवलोकन करता सा।
बहुत बहुत आभार आदरणीया कुसुम जी
हटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय गगन जी
हटाएंसभी अशआर खूबसूरत...अपने आप में मुकम्मल | बधाई स्वीकारें|
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीया ऋता जी
हटाएंबहुत सुन्दर ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय शास्त्रीजी
हटाएंसुन्दर सृजन - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय शांतनुजी
हटाएंकौन कहता है कि, तन्हाई रुलाती है,
जवाब देंहटाएंहम खयालों में, उन्हीं के साथ जा बैठे।
वाह! क्या बात है!!! सुंदर।
बहुत बहुत आभार आदरणीया सधु जी
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय विमल जी, ब्लॉग पर स्वागत है आपका।
हटाएंबहुत खूब ... हर शेर में मुख्तलिफ़ अंदाज़ और जुदा भाव ... दिल में सीधे उतारते हुए ... शानदार गज़ल ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय दिगंबर सर
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय आलोक सिन्हा सर
हटाएंलौटकर हम अपनी दुनिया में, बड़े खुश हैं
जवाब देंहटाएंकाँच के टुकड़ों से, गुलदस्ता बना बैठे ।
कोई कर लेता है कैसे, उफ्फ ! सौदा दोस्ती का
हम हलफ़नामे में, अपनी जाँ लिखा बैठे
वाह!!!
कमाल की गजल....सीधे दिल को छूती...
लाजवाब।
स्नेहिल प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार प्रिय सुधा।
हटाएंबहुत खूबसूरत ग़ज़ल , दिल के जैसे सब पर्दे खोल बैठे ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-2-22) को 'तब गुलमोहर खिलता है'(चर्चा अंक-4346)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
लौटकर हम अपनी दुनिया में, बड़े खुश हैं
जवाब देंहटाएंकाँच के टुकड़ों से, गुलदस्ता बना बैठे ।
वाह अप्रितम ,
शानदार गजल
पढ़ते पढ़ते डूब गई आपके लेखन में... नाजुक हृदय की मलिका हैं आप... काश में भी कभी आपके जैसा लिखूँ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत ही सुंदर।
सादर स्नेह
Good Informatio ( Chek Out )
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