बुधवार, 25 नवंबर 2020

एक मुद्दत बाद....

एक मुद्दत बाद खुद के साथ आ बैठे

यूँ लगा जैसे कि रब के साथ आ बैठे !


कौन कहता है कि, तन्हाई रुलाती है,

हम खयालों में, उन्हीं के साथ जा बैठे।


वक्त, इतना वक्त, देता है कभी - कभी

इक ग़ज़ल भूली हुई हम गुनगुना बैठे।


लौटकर हम अपनी दुनिया में, बड़े खुश हैं

काँच के टुकड़ों से, गुलदस्ता बना बैठे ।


कोई कर लेता है कैसे, उफ्फ ! सौदा दोस्ती का

हम हलफ़नामे में, अपनी जाँ लिखा बैठे ।


एक अरसे बाद खोला, उस किताब को

फड़फड़ाते सफ़हे हमको, मुँह चिढ़ा बैठे। 


छाँव में  जिनकी पले, खेले, बढ़े,

उन दरख्तों पे क्यूँ तुम, आरी चला बैठे। 




38 टिप्‍पणियां:

  1. कौन कहता है कि, तन्हाई रुलाती है,

    हम खयालों में, उन्हीं के साथ जा बैठे।



    वक्त, इतना वक्त, देता है कभी - कभी

    इक ग़ज़ल भूली हुई हम गुनगुना बैठे...बहुत ही ख़ूबसूरती से मनोभावों को पिरोया है आपने...।सुंदर रचना...।

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    1. बहुत बहुत आभार एवं स्वागत आदरणीया जिज्ञासा जी

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (२६-११-२०२०) को 'देवोत्थान प्रबोधिनी एकादशी'(चर्चा अंक- ३८९७) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  3. बहुत सुंदर प्रिय मीना। खुद से संवाद करते मन से उमड़े हरेक शेर में कहानी छिपी हुई है।
    कोई कर लेता है कैसे, उफ्फ ! सौदा दोस्ती का
    हम हलफ़नामे में, अपनी जाँ लिखा बैठे
    बड़ी सादगी से लिखी गई इस रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई
    ❤🌹❤🌹

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २७ नवंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।

    सादर
    धन्यवाद।

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  5. प्रभावशाली रचना का सृजन हुआ है आपकी लेखनी से। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया मीना जी।

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  6. वाह स्वयं में जा बैठना एक आलोकिक अनुभूति है।
    बहुत सुंदर रचना हर बंध खुद का अवलोकन करता सा।

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  7. सभी अशआर खूबसूरत...अपने आप में मुकम्मल | बधाई स्वीकारें|

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  8. कौन कहता है कि, तन्हाई रुलाती है,

    हम खयालों में, उन्हीं के साथ जा बैठे।
    वाह! क्या बात है!!! सुंदर।

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  9. उत्तर
    1. बहुत बहुत आभार आदरणीय विमल जी, ब्लॉग पर स्वागत है आपका।

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  10. बहुत खूब ... हर शेर में मुख्तलिफ़ अंदाज़ और जुदा भाव ... दिल में सीधे उतारते हुए ... शानदार गज़ल ...

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  11. लौटकर हम अपनी दुनिया में, बड़े खुश हैं
    काँच के टुकड़ों से, गुलदस्ता बना बैठे ।



    कोई कर लेता है कैसे, उफ्फ ! सौदा दोस्ती का
    हम हलफ़नामे में, अपनी जाँ लिखा बैठे

    वाह!!!
    कमाल की गजल....सीधे दिल को छूती...
    लाजवाब।

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    1. स्नेहिल प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार प्रिय सुधा।

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  12. बहुत खूबसूरत ग़ज़ल , दिल के जैसे सब पर्दे खोल बैठे ।

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  13. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-2-22) को 'तब गुलमोहर खिलता है'(चर्चा अंक-4346)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  14. लौटकर हम अपनी दुनिया में, बड़े खुश हैं

    काँच के टुकड़ों से, गुलदस्ता बना बैठे ।

    वाह अप्रितम ,
    शानदार गजल

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  15. पढ़ते पढ़ते डूब गई आपके लेखन में... नाजुक हृदय की मलिका हैं आप... काश में भी कभी आपके जैसा लिखूँ।
    बहुत बहुत ही सुंदर।
    सादर स्नेह

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