शुक्रवार, 27 जून 2025

पुनः बसंत लिखूँगी !

पतझड़ के मौसम में झड़ते
पात - पात की पीड़ाओं को,
झंझा की झकझोरों से
झरने वाली कच्ची कलियों को,
लिखने वाले खूब लिख गए,
मैं पतझड़ का अंत लिखूँगी !
          मैं तो पुनः बसंत लिखूँगी  !

आग नफरतों की जब फैली
दावानल में देश जल उठा,
राजसभा जनसभा, फर्क क्या
चीरहरण का दृश्य वही था ।
अब पांचाली के हाथों से 
दुर्योधन का अंत लिखूँगी !
         मैं तो पुनः बसंत लिखूँगी  !

हर युग में पैदा होते हैं
रावण, कंस और दुःशासन, 
कुछ जनता का शोषण करते
कुछ जनता पर करते शासन !
उनका महिमा-मंडन ना कर,
दुष्टों का विध्वंस लिखूँगी ।
        मैं तो पुनः बसंत लिखूँगी  !

बंसी के वह मृदुल मधुर स्वर
जो गूँजे थे यमुना तट पर
मेरे स्मृति पटल पर अंकित
कृष्ण सखी के बजते नुपूर
महाभारत तो कई लिख गए
मैं तो केवल कृष्ण लिखूँगी
         मैं तो पुनः बसंत लिखूँगी  !

जाति - धर्म बनने से पहले
वाला युग लिखना चाहेगी,
मेरी कलम सिर्फ मानव की
कर्म - कथा कहना चाहेगी,
मानवता की चिर यात्रा का
सुंदर, सदय, सुअंश लिखूँगी !
          मैं तो पुनः बसंत लिखूँगी  !