तुम्हारे गम में रोएँगे,
तुम्हें गर नींद ना आए
भला वो कैसे सोएँगे।
नहीं हिम्मत, तुम्हें पूछूँ -
"दर्द का बोझ है कितना"
मिले जो दर्द के हिस्से
सभी खुद ही तो ढोएँगे।
बजाएँ चैन की बंसी
जो अपनों की मुसीबत में,
गुनाहों से सना दामन
वो किस गंगा में धोएँगे ?
मरी संवेदनाएँ हों दफ़न,
जिस दिल की धरती में
नहीं उगती फसल उसमें
बीज जितने भी बोएँगे।
समंदर पार कर आए,
जरा सी दूर थी मंजिल
मगर सोचा ना था, कश्ती
किनारे ही डुबोएँगे।
तज़ुर्बे ही सिखाते हैं
फ़लसफ़ा ज़िंदगी का ये
है अपना क्या जमाने में
जिसे पाएँगे - खोएँगे ।