थक गए कदम, थका - थका है मन,
अपने हृदय में अब मुझे विश्राम दो ।
अनवरत अथक प्रवास को मेरे,
प्रिय ! किसी प्रयत्न से विराम दो ।
परिक्रमा कब तक करेगी सूर्य की,
कब तलक करे स्वयं का परिभ्रमण !
व्योम को निहारती वसुंधरा
काल्पनिक क्षितिज का क्यों करे वरण !
है धरा के धैर्य का अंतिम चरण,
अब गगन को भी कोई आह्वान दो।
अनवरत अथक प्रवास को मेरे
प्रिय ! किसी प्रयत्न से विराम दो ।
समय - सरिता बह रही अविराम है,
हैं हमारी नियति में विपरीत तट !
देह के संदर्भ देना व्यर्थ है,
प्राण के आधार पर यदि हैं निकट !
मैं उगा लूँ पत्थरों पर हरीतिमा
काल के प्रवाह को तुम थाम दो ।
अनवरत अथक प्रवास को मेरे
प्रिय ! किसी प्रयत्न से विराम दो ।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 25 फ़रवरी 2025 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंVery Nice Post.....
जवाब देंहटाएंWelcome to my blog!
आतुर मन की चिर अभिलाषा है एक ऐसा विश्राम जो अंतर की सारी पीड़ा को हर ले, पूर्ण विश्रांति की इस कामना को आपने सुंदर शब्दों और भावों से व्यक्त किया है !
जवाब देंहटाएंअतिसंदुर भाव !
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