पिछले वर्ष 12जून 2016 को मैंने पहली पोस्ट "बंदी चिड़िया"के साथ इस ब्लॉग की शुरूआत की थी।
वास्तव में इससे पहले मैंने ब्लॉग लेखन के बारे में सुना भर था । कालेज के जमाने से लेखन का शौक था। पापा को भजनों का शौक रहा। अच्छा गाते भी थे और हारमोनियम भी बजाते थे। भजनों से भरी कई डायरियाँ पापा के पास अभी भी हैं। भजन संग्रह का उन्हें काफी शौक रहा । कुछ भजन पापा खुद भी लिखते थे।
उनकी देखादेखी हम बहनों ने भी कई भजन लिखे । मैं कविताएँ एवं गजल जैसा कुछ लिखती रही, किंतु छुपाकर । घर के रूढ़िवादी माहौल में उन्हें बाहर लाने का अर्थ था - अपनी पढ़ाई लिखाई बंद करवा कर घर बैठ जाना ।
विवाह के बाद तो पारिवारिक जिम्मेदारियों में लिखने का अवकाश ही नहीं मिल पाता था । वाचन में रुचि एवं भाषा की शिक्षिका होने से साहित्य से जुड़ाव बना रहा ।
लिखने की दूसरी पारी की शुरूआत तीन वर्ष पूर्व अपने पुत्र के अठारहवें जन्मदिन पर एक कविता से की । वह कविता थी - माँ की चिट्ठी । उसके बाद 'बंदी चिड़िया' एवं अन्य कविताएँ लिखीं । कुछ स्थानीय अखबारों में प्रकाशित भी हुई किंतु प्रकाशन को गंभीरता से ना लेते हुए मैंने शौकिया लेखन ही जारी रखा ।
पिछले वर्ष बहन ने हमारे शहर की ही एक गुजराती लेखिका के ब्लॉग की लिंक भेजी। उसके बाद से मुझे भी लगने लगा कि मैं भी अपना ब्लॉग बनाकर अपनी अभिव्यक्ति को सबके साथ साझा करूँ। ब्लॉग बनाने की तकनीकी जानकारी शून्य थी। यू ट्यूब से ही सीखकर बनाया था । जैसा बन पाया था उसी पर कुछ पुरानी व कुछ नई रचनाओं को पोस्ट करना शुरू किया।
कहते हैं ना कि 'जहाँ चाह, वहाँ राह '..... दुनिया में आज भी अच्छे लोग हैं और सीखने की चाह रखने वालों के लिए कदम कदम पर शिक्षक हैं । ऐसे ही एक मार्गदर्शक और शुभचिंतक की मदद से मेरे ब्लॉग को यह नया स्वरूप प्राप्त हुआ और एक प्यारा सा नया नाम भी मिला -- 'चिड़िया'....
एक वर्ष में इस ब्लॉग पर 80 पोस्ट प्रकाशित हो चुकी हैं जिसके लिए मैं अपने मार्गदर्शक की बहुत-बहुत शुक्रगुजार हूँ ।
आप सभी पाठकों और ब्लॉगर मित्रों ने मेरी उम्मीद से भी ज्यादा स्नेह और प्रोत्साहन दिया है जिससे मेरी लेखनी को एक नया जीवन मिला है । मैं तहेदिल से आप सबकी आभारी हूँ ।
अंत में अपनी ही एक कविता की पंक्तियाँ....
"जिंदगी हर पल कुछ नया सिखा गई,
ये दर्द में भी हँसकर जीना सिखा गई...
काँटे भी कम नहीं थे गुलाबों की राह में,
खुशबू की तरह हमको बिखरना सिखा गई...
अच्छाइयों की आज भी कदर है जहाँ में,
दामन में दुआओं को ये भरना सिखा गई..."