जब यह तन माटी हो जाए,
काम किसी के आए तो !
माटी में इक पौधा जन्मे,
कलियाँ चंद, खिलाए तो !
सूरज तपे, बनें फिर बादल,
फिर आए वर्षा की ऋतु,
बूँदें जल की, माटी में मिल,
माटी को महकाएँ तो !
माटी के दो बैल बनें,
औ' माटी के गुड्डे - गुड़ियाँ,
खेल - खिलौने माटी के,
बालक का मन बहलाएँ तो !
माटी में वह माटी मिलकर,
कुंभकार के चाक चढ़े,
माटी का इक कलश बने,
प्यासों की प्यास बुझाए तो !
किसी नदी की जलधारा से,
मिलकर सागर में पहुँचे,
सागर की लहरों से मिलकर,
क्षितिज नए पा जाए तो !
उस माटी के कण उड़कर,
बिखरें कुछ तेरे आँगन में,
तेरे कदमों को छूकर,
वह माटी भी मुस्काए तो !!!
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जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (7-3-2020 ) को शब्द-सृजन-11 " आँगन " (चर्चाअंक -3633) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
माटी के विविध रूपों को बहुत मृदुल भावोंं से तराशा है आपने । कोमलकांत पदावली से सृजित भाव मन को शीतल कर गए । बहुत खूबसूरत रचना मीना जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीया दीदी. रचना का मर्म सीधा हृदय से संवाद करता है आप की प्रत्येक रचना का...
जवाब देंहटाएंसादर स्नेह