बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?
परदेसी बादल, वसुधा के
नयनों में सपने बोता है ?
बाग-बगीचों में अब भी,
झूले पड़ते हैं क्या सावन के ?
गीत बरसते हैं क्या नभ से,
आस जगाते प्रिय आवन के ?
भोर सबेरे हरसिंगार
टप-टप हीरे टपकाते हैं क्या ?
माटी में मिलते-मिलते भी
सुमन सुरभि दे जाते हैं क्या ?
क्या भीगी-भीगी धरती का,
तन-मन रोमांचित होता है ?
बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?
क्या भैया की बाट जोहती,
हैं अब भी दो विह्वल अँखियाँ ?
पनघट पर कुछ हँसी ठिठोली,
करती हैं क्या गुपचुप सखियाँ ?
पीपल के नीचे मस्तों का,
जमघट अब भी लगता है क्या ?
बच्चों की टोली का सावन
जल में छप-छ्प करता है क्या ?
क्या त्योहारों पर हृदयों का,
अब भी वही मिलन होता है ?
बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?
क्या मोती की लड़ियाँ अब भी
झरनों से झर-झर झरती हैं ?
शिव की गौरी-सी ललनाएँ,
पूजाथाल लिए फिरती हैं ?
क्या कजरी-बिरहा में, रिमझिम
सावन की घुलमिल जाती है ?
क्या वंशी की धुन पर राधा
अब भी खिंची चली आती है ?
क्या अब भी कोई मेघ, यक्ष की
पाती ले जाते रोता है ?
बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?
इतना खूबसूरत एहसास लिखा है दी कि इस फुहार में मन भीग गया...बेहद खूबसूरत रचना दी..वाह👌👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत सारा स्नेह एवं धन्यवाद प्रिय श्वेता।
हटाएंबोल पथिक ! क्या तेरे देस,
जवाब देंहटाएंसावन अब भी ऐसा होता है ?
परदेसी बादल, वसुधा के
नयनों में सपने बोता है ?
इस रचना की जितनी भी तारीफ करूँ कम है। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय मीना जी।
बहुत ही हौसला बढ़ाती प्रतिक्रिया। सादर आभार आदरणीय सिन्हा जी।
हटाएंबहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंघटनाक्रम को चित्रित ही कर दिया आपने
शब्दों से..।
वाह!!!
सादर आभार सर। आपका मार्गदर्शन सदैव अपेक्षित है और अनमोल भी।
हटाएंबेहद खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंसादर आभार अनुराधा जी
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 11 जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीया यशोदा दीदी
हटाएंसारे सवाल भावुक करते हुए
जवाब देंहटाएंउम्दा लेखन
आदरणीया दीदी, सादर धन्यवाद।
हटाएं
जवाब देंहटाएंक्या अब भी कोई मेघ, यक्ष की
पाती ले जाते रोता है ?
बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?
अत्यन्त सुन्दर सृजन ।
अत्यंत आभार आपका मीना जी।
हटाएंवाह !बेहतरीन सृजन प्रिय दी जी
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत बहुत धन्यवाद अनिताजी
हटाएंरचना का हरेक बंद शानदार. बिम्बों और प्रतीकों का अनूठा प्रयोग पाठक को रचनाकार से "कुछ और भी" लिखा जाता जैसी अपेक्षाएँ रखने का मानस बनाता है.
जवाब देंहटाएंकम से कम शब्दों में ऐसी रचना ही सावन जैसे विस्तृत विषय को अलंकरण की ख़ूबसूरती के साथ पाठक का मन मोह लेती है .
बधाई एवं शुभकामनाएँ. लिखते रहिए.
रचना लंबी होने के डर से एक अंतरा कापी में ही रहने दिया था। आपके प्रोत्साहन से उसे अब जोड़ दिया है। बहुत ही हौसला बढ़ाती हुई प्रतिक्रिया। हृदयपूर्वक आभार आपका आदरणीय रवींद्रजी। सादर।
हटाएंबहुत ही सुंदर सृजन,मीना दी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीया ज्योति जी।
हटाएंवाह!!बहुत ही खूबसूरत भावाभिव्यक्ति मीना जी !!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार शुभाजी।
हटाएंबहुत सुंदर रचना..
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना सोमवारीय विशेषांक १५ जुलाई २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
अहा!!!कितना खूबसूरत सावन !!
जवाब देंहटाएंकमाल का सृजन ......बहुत ही लाजवाब रचना मीना जी अनन्त शुभकामनाएं आपको...
भोर सबेरे हरसिंगार
जवाब देंहटाएंटप-टप हीरे टपकाते हैं क्या ?
माटी में मिलते-मिलते भी
सुमन सुरभि दे जाते हैं क्या ?
प्रिय मीना बहन -- अत्यंत सराहनीय रचना जिसकी तारीफ के लिए मेरे शब्द सक्षम नहीं | लौकिक सावन को पथिक के लिए उद्बोधन ने बहुत ही आलौकिक बना दिया है | लाजवाब बहुत ही शंद्र रचना के लिए आपको हार्दिक शुभकामनायें | माँ शारदे की कृपा आप पर सदैव बनी रहे |
शब्दों की मुस्कराहट पर आपका स्वागत है
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (27-07-2020) को 'कैनवास' में इस बार मीना शर्मा जी की रचनाएँ (चर्चा अंक 3775) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
हमारी विशेष प्रस्तुति 'कैनवास' (संपूर्ण प्रस्तुति में सिर्फ़ आपकी विशिष्ट रचनाएँ सम्मिलित हैं ) में आपकी यह प्रस्तुति सम्मिलित की गई है।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
जवाब देंहटाएंभोर सबेरे हरसिंगार
टप-टप हीरे टपकाते हैं क्या ?
माटी में मिलते-मिलते भी
सुमन सुरभि दे जाते हैं क्या ?
बोल पथिक ! क्या तेरे देस,
सावन अब भी ऐसा होता है ?
क्या भैया की बाट जोहती,
हैं अब भी दो विह्वल अँखियाँ ?
इतना तो अब भी हमारे देस में होता है।