अभी अभी तो जगा नींद से
अभी अभी फिर सो गया दिन !
अभी अभी फिर सो गया दिन !
कितना छोटा हो गया दिन !
जाड़े का ये कैसा जादू
सूरज पर है इसका काबू
शाल - दुशाले, दुलई - कंबल
ओढ़ के मोटा हो गया दिन !
कितना छोटा हो गया दिन !
रात ठिठुरती काँप रही है
गुदड़ी से तन ढाँप रही है
दिन होगा तो धूप खिलेगी
एक भरोसा हो गया दिन !
कितना छोटा हो गया दिन !
सूखे - सूखे आज नहा लो
पानी में तुम हाथ ना डालो
अदरक वाली गर्म चाय के
संग समोसा हो गया दिन !
कितना छोटा हो गया दिन !
सूरज भाई, कहाँ चला रे
काम पड़े हैं कितने सारे !
दुपहरिया के ढलते ढलते
किस कोने में खो गया दिन !
कितना छोटा हो गया दिन !
अति सुंदर वर्णन।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" शनिवार 06 जनवरी 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंवाह वाह! ठंडी के दिनों की सुन्दर चित्रण किया है आपने मीना जी.... मगर, आप तो मुम्बई में बैठे हो ये मज़ा लेनी है तो आ जाओ दिल्ली,☺️
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंसच्ची! पानी में हाथ डालने का मन नहीं हो रहा।
जवाब देंहटाएंसर्द मौसम का सुंदर वर्णन।
वाह ! सर्दियों के छोटे से दिन का अति सुहाना परिचय
जवाब देंहटाएंजो भी हो मीना जी, आपने समोसा और चाय कर जिक्र कर मन को वाचाल कर दिया...अब चला जाये इसी की तलाश में....राम राम
जवाब देंहटाएंवाह! मीना जी ,क्या बात है ! बहुत खूबसूरत सृजन।
जवाब देंहटाएंमीना जी कविता पढ़कर आनन्द आगया . कितनी सहजता से दिन के छोटेपन का शानदार चित्रण किया है ..दिन का जागना व सोना कितना सुन्दर बिम्ब ..वाह ...
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंशाल - दुशाले, दुलई - कंबल
ओढ़ के मोटा हो गया दिन !
क्या बात...
लाजवाब👌👌