तुमको पाती प्रिये, मैं कहाँ से लिखूँ ?
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
मेघ सुधियों के बेरुत बरसने लगे,
ताल नयनों का बरबस छ्लकने लगा !
भीगने से डरी, मेरी निंदिया परी,
हर निशा, जागरण का महोत्सव हुआ।
ताल नयनों का बरबस छ्लकने लगा !
भीगने से डरी, मेरी निंदिया परी,
हर निशा, जागरण का महोत्सव हुआ।
घिर गई है तिमिर से हृदय की धरा,
प्रेम के चाँद की चाँदनी छीन ली।
तुमको पाती प्रिये, मैं कहाँ से लिखूँ ?
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
पुष्प की पांखुरी, एक एक कर झरी
वृंत्त अब भी क्यों पौधे से आबद्ध है ?
नोंच पत्तों को पागल पवन पतझड़ी
कहती, शाश्वत भला कौन संबंध है !
अब बदलते हुए मौसमों ने यहाँ
कोकिलाओं से मधुरागिनी छीन ली !
तुमको पाती प्रिये, मैं कहाँ से लिखूँ ?
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
डालकर अस्त्र सारे, पराभूत हो,
नेह का दीप बुझने को है अग्रसर !
किंतु मिटने से पहले क्षणिक मान में,
आस की लौ हुई थी जरा सी प्रखर !
स्नेह का अंत ही दीप का अंत है,
ज्योत कैसे जले, रोशनी छीन ली ।
तुमको पाती प्रिये, मैं कहाँ से लिखूँ ?
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
बहुत खूब। सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-06-2022) को चर्चा मंच "निम्बौरी अब आयीं है नीम पर" (चर्चा अंक- 4455) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
बहुत बहुत आभार आदरणीय शास्त्रीजी।
हटाएंमन के भावों को सुंदरतम शब्द दिए हैं । कलम को छीनने मत दीजिये ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीया संगीता दी।
हटाएंबहुत सुंदर मन को छूती रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय खरे जी।
हटाएंमेघ सुधियों के बेरुत बरसने लगे,
जवाब देंहटाएंताल नयनों का बरबस छ्लकने लगा !
भीगने से डरी, मेरी निंदिया परी,
हर निशा, जागरण का महोत्सव हुआ।
वाह, बहुत सुंदर ! हर अंतरा नवीनता लिए हुए है, सुंदर सृजन !
बहुत बहुत आभार आदरणीया अनिता जी।
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 8 जून 2022 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
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पुन: भेंट होगी...
बहुत बहुत आभार आदरणीया पम्मी जी
हटाएंआज मेरी इस रचना पर आदरणीय शास्त्रीजी की टिप्पणी भी आई थी जिसमें रचना को चर्चा मंच पर लेने के बारे में सूचित किया गया था। इसके अलावा आदरणीया संगीता दीदी की टिप्पणी भी थी। ये दोनों सूचनाएँ मुझे मेल में दिख रही हैं परंतु ना जाने क्यों ब्लॉग पर नहीं दिख रही हैं।
जवाब देंहटाएंआज की पोस्ट प्रिय पम्मी ने ली है । मैंने एक सप्ताह पहले लगाई थी शायद । सस्नेह ।।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंप्रिय श्वेता ने मेरी टिप्पणी पढ़कर तुरंत मुझे संपर्क किया और बताया कि क्या करना है, जिसके बाद सब टिप्पणियाँ ब्लॉग पर आ गई हैं। हृदय से स्नेह भरा आभार प्रिय श्वेता।
जवाब देंहटाएंजी दी,
हटाएंआपका स्नेह सदैव चाहिए, पर
आभार की कोई बात नहीं आजकल लगभग सभी ब्लॉगर इसी समस्या से जूझ रहे है।
बिलकुल सही ।
हटाएंमेरे ब्लॉग पर भी टिप्पणियां स्पैम में अक्सर चली जाती हैं।
प्रेम लिखने वाली लेखनी भला कहाँ.खो सकती है दी।
जवाब देंहटाएंमर्म छूती सुंदर अभिव्यक्ति।
आपकी कविता पढ़कर-
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पाती की आस में साँसें चल रही हैं किसी की
लेखनी खोने न देना,आस को रोने न देना
चलो मिलकर ढूँढते हैं
साथ में अंधेरा मूँदते हैं
दीप को जलना ही होगा
रात को ढलना ही होगा
स्नेह की लौ में पिघला लें चलो दर्द सारे
लेखनी खोने न देना,आस को रोने न देना।
---------
प्रणाम दी
सादर।
बहुत बहुत आभार प्रिय श्वेता। आपकी काव्यात्मक टिप्पणी प्रेरक भी है और सुंदर भी।
हटाएंबहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रतिक्रिया प्रिय श्वेता 👌👌♥️🌺🌺
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीया रंजू जी
हटाएंआपका ये प्यारा गीत मन में उतर गया । बहुत मधुर संगीत से भरा हुआ । गुनगुना भी चुकी ।
जवाब देंहटाएंबधाई मीना जी ।
बहुत बहुत आभार जिज्ञासा जी
हटाएंसुन्दर गीत
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय।
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार मनोज जी
हटाएंमेघ सुधियों के बेरुत बरसने लगे,
जवाब देंहटाएंताल नयनों का बरबस छ्लकने लगा !
भीगने से डरी, मेरी निंदिया परी,
हर निशा, जागरण का महोत्सव हुआ।
लेखनी छिन जाये तो मेघ तो बरसेंगे ही...
प्रतीकात्मक शैली में बहुत ही लाजवाब गीत..बार बार गुनगुनाने लायक लाजवाब गीत के लिए बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं मीनाजी !
बहुत बहुत आभार सुधाजी।
हटाएंकहती, शाश्वत भला कौन संबंध है !
जवाब देंहटाएंअद्भुत है आपकी भाषा शैली भावों को उकेरने के लिए सुंदर व्यंजनाएं।
बहुत बहुत सुंदर सृजन।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंसादर आभार आदरणीया कुसुमजी
हटाएंमन में संशय हो तो लेखनी नहीं चलती और पाती पूर्ण नहीं होती ...
जवाब देंहटाएंलजवाब गेयता और अनूठे बिम्ब संजोये हैं आपने इस रचना में ...
सादर आभार आदरणीय दिगंबर सर
हटाएं
जवाब देंहटाएंपुष्प की पांखुरी, एक एक कर झरी
वृंत्त अब भी क्यों पौधे से आबद्ध है ?
नोंच पत्तों को पागल पवन पतझड़ी
कहती, शाश्वत भला कौन संबंध है !/////
व्याकुल मन की अव्यक्त व्यथा को बहुत ही मार्मिकता से शब्दों में समेटा है प्रिय मीना।जीवन में सुख और दुख धूप-छाया से आते जाते रहते हैं।मानव स्वभाव है सुख में खुश रहना। पर पीड़ा का भाव हृदय को दारुण दुःख देता है।फिर भी चलती का नाम जिन्दगी।एक भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए बधाई और शुभकामनाएं ।
बहुत सारा प्यार और धन्यवाद प्रिय रेणु
हटाएंनेह का अंत ही दीप का अंत है, सच है यह बात। यदि दीप संबंध है तो नेह उसकी ज्योति। ज्योति ही न रहे तो बुझे दिये के अस्तित्व का क्या अर्थ? आपने बड़ा मार्मिक गीत लिखा है मीना जी आपने। आपके इस गीत के लिए मुझे एक बात और कह लेने दीजिए - जिसे अब भी 'प्रिये' कहकर संबोधित किया जाए, उसके लिए मन के किसी कोने में प्रेम बचा हुआ तो है ही।
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय जितेंद्र माथुर जी, आज बहुत समय बाद आपको देखकर अच्छा लगा। आपकी टिप्पणी रचना के मर्म को छूती है। हृदयपूर्वक अनेक धन्यवाद।
हटाएंआपकी लिखी कोई रचना शुकवार 24 जून 2022 को साझा की गई है ,पांच लिंकों का आनंद पर...
जवाब देंहटाएंआप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।संगीता स्वरूप