तुमको पाती प्रिये, मैं कहाँ से लिखूँ ?
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
मेघ सुधियों के बेरुत बरसने लगे,
ताल नयनों का बरबस छ्लकने लगा !
भीगने से डरी, मेरी निंदिया परी,
हर निशा, जागरण का महोत्सव हुआ।
ताल नयनों का बरबस छ्लकने लगा !
भीगने से डरी, मेरी निंदिया परी,
हर निशा, जागरण का महोत्सव हुआ।
घिर गई है तिमिर से हृदय की धरा,
प्रेम के चाँद की चाँदनी छीन ली।
तुमको पाती प्रिये, मैं कहाँ से लिखूँ ?
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
पुष्प की पांखुरी, एक एक कर झरी
वृंत्त अब भी क्यों पौधे से आबद्ध है ?
नोंच पत्तों को पागल पवन पतझड़ी
कहती, शाश्वत भला कौन संबंध है !
अब बदलते हुए मौसमों ने यहाँ
कोकिलाओं से मधुरागिनी छीन ली !
तुमको पाती प्रिये, मैं कहाँ से लिखूँ ?
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
डालकर अस्त्र सारे, पराभूत हो,
नेह का दीप बुझने को है अग्रसर !
किंतु मिटने से पहले क्षणिक मान में,
आस की लौ हुई थी जरा सी प्रखर !
स्नेह का अंत ही दीप का अंत है,
ज्योत कैसे जले, रोशनी छीन ली ।
तुमको पाती प्रिये, मैं कहाँ से लिखूँ ?
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।