आखिर किसलिए ?
रख दी गिरवी यहाँ अपनी साँसे
पर किसी को फिकर तो नहीं
बहते बहते उमर जा रही है
आया साहिल नजर तो नहीं....
वक्त अपने लिए ही नहीं था
सबकी खातिर थी ये जिंदगी,
जो थे पत्थर के बुत, उनको पूजा
उनकी करते रहे बंदगी,
जिनकी खातिर किया खुद को रुसवा
उनको कोई कदर तो नहीं....
अपना देकर के चैन-औ-सुकूँ सब
खुशियाँ जिनके लिए थीं खरीदी,
दर पे जब भी गए हम खुदा के
माँगी जिनके लिए बस दुआ ही,
वो ही जखमों पे नश्तर चुभाकर
पूछते हैं, दर्द तो नहीं ?...
रख दी गिरवी यहाँ अपनी साँसे,
पर किसी को फिकर तो नहीं
बहते-बहते उमर जा रही है,
आया साहिल नजर तो नहीं...
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नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (27-07-2020) को 'कैनवास' में इस बार मीना शर्मा जी की रचनाएँ (चर्चा अंक 3775) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
हमारी विशेष प्रस्तुति 'कैनवास' (संपूर्ण प्रस्तुति में सिर्फ़ आपकी विशिष्ट रचनाएँ सम्मिलित हैं ) में आपकी यह प्रस्तुति सम्मिलित की गई है।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
जिनकी खातिर किया खुद को रुसवा
जवाब देंहटाएंउनको कोई कदर तो नहीं....
वाह!!!
बेहद उम्दा, उत्कृष्ट सृजन।