बुधवार, 28 अक्टूबर 2020

कितना और मुझे चलना है ?

जीवन की लंबी राहों में

पीछे छूटे सहचर कितने !

कितनी यात्रा बाकी है अब ?

कितना और मुझे चलना है ?


कितना और अभी बाकी है, 

इन श्वासों का ऋण आत्मा पर !

किन कर्मों का लेखा - जोखा,

देना है विधना को लिखकर !

अभी और कितने सपनों को,

मेरे नयनों में पलना है ?

कितना और मुझे चलना है ?


अस्ताचल को चला भास्कर

और एक दिन गया गुजर !

कितने और पड़ाव रह गए ?

सहज प्रश्न यह, अचरज क्योंकर ?

बाकी कितने अनजानों से,

मुझको और यहाँ मिलना है ?

कितना और मुझे चलना है  ?


यूँ तो, इतनी आसानी से

मेरे कदम नहीं थकते हैं,

लेकिन जब संध्या की बेला

पीपल तले दिए जलते हैं !

मेरे हृदय - दीप  की, कंपित

लौ पूछे, कितना जलना है ?

कितना और मुझे चलना है ?







बुधवार, 21 अक्टूबर 2020

शरद पूर्णिमा के मयंक से

इस जीवन की मरुभूमि पर

सजल सरोवर जैसे तुम !

चुभते पाषाणों के पथ पर

कोमल दूर्वादल से तुम !


पीड़ा की कज्जल बदरी ने

ढाँप दिए खुशियों के तारे,

इक तारा कसकर मुठ्ठी में,

बाँध लिया था, वह थे तुम !


ग्रीष्म ऋतु के सूरज जैसा

दाहक दंभ सहा दुनिया का,

शरद पूर्णिमा के मयंक से

झरते सुधा-बिंदु हो तुम !


इंद्रधनुष के रंगों को

नभ ने बिखराया फूलों पर,

मेरे हिस्से के रंगों की

ईश्वर - प्रदत्त धरोहर तुम !


जोड़-जोड़कर जिनको मैंने

जाने कितने गीत बुने,

मेरे गीतों के शब्दों के

पावन अक्षर - अक्षर तुम !!!