जीवन की लंबी राहों में
पीछे छूटे सहचर कितने !
कितनी यात्रा बाकी है अब ?
कितना और मुझे चलना है ?
कितना और अभी बाकी है,
इन श्वासों का ऋण आत्मा पर !
किन कर्मों का लेखा - जोखा,
देना है विधना को लिखकर !
अभी और कितने सपनों को,
मेरे नयनों में पलना है ?
कितना और मुझे चलना है ?
अस्ताचल को चला भास्कर
और एक दिन गया गुजर !
कितने और पड़ाव रह गए ?
सहज प्रश्न यह, अचरज क्योंकर ?
बाकी कितने अनजानों से,
मुझको और यहाँ मिलना है ?
कितना और मुझे चलना है ?
यूँ तो, इतनी आसानी से
मेरे कदम नहीं थकते हैं,
लेकिन जब संध्या की बेला
पीपल तले दिए जलते हैं !
मेरे हृदय - दीप की, कंपित
लौ पूछे, कितना जलना है ?
कितना और मुझे चलना है ?