शुक्रवार, 26 मई 2017

नुमाइश करिए

दोस्ती-प्यार-वफा की, न अब ख्वाहिश करिए
ये नुमाइश का जमाना है नुमाइश करिए ।

अब कहाँ वक्त किसी को जनाब पढ़ने का,
इरादा हो भी, खत लिखने का, तो खारिज करिए ।

अपनी मर्जी से चलें वक्त, हवा और साँसें,
कैद करने की इन्हें, आप न साजिश करिए ।

सूखे फूलों को भला कौन खिला सकता है,
आप उन पर भले ही, प्यार की बारिश करिए ।

यहाँ गुनाहे - मोहब्बत की सजा उम्रकैद है,
दूर रहने की इस गुनाह से कोशिश करिए ।

जिंदगी की अदालत फैसले बदलती नहीं,
अब कहीं और रिहाई की गुजारिश करिए।।
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रविवार, 21 मई 2017

माटी

      *माटी*
जब यह तन माटी हो जाए,
काम किसी के आए तो !
माटी में इक पौधा जन्मे,
कलियाँ चंद, खिलाए तो !

सूरज तपे, बनें फिर बादल,
फिर आए वर्षा की ऋतु,
बूँदें जल की, माटी में मिल,
माटी को महकाएँ तो !

माटी के दो बैल बनें,
औ' माटी के गुड्डे - गुड़ियाँ,
खेल - खिलौने माटी के,
बालक का मन बहलाएँ तो !

माटी में वह माटी मिलकर,
कुंभकार के चाक चढ़े,
माटी का इक कलश बने,
प्यासों की प्यास बुझाए तो !

किसी नदी की जलधारा से,
मिलकर सागर में पहुँचे,
सागर की लहरों से मिलकर,
क्षितिज नए पा जाए तो !

उस माटी के कण उड़कर,
बिखरें कुछ तेरे आँगन में,
तेरे कदमों को छूकर,
वह माटी भी मुस्काए तो !!!

शुक्रवार, 12 मई 2017

तब गुलमोहर खिलता है !

 तब गुलमोहर खिलता है !
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फूले पलाश झर जाते हैं,
टेसू आँसू  बरसाते हैं,
दारुण दिनकर की ज्वाला में,
जब खिले पुष्प मुरझाते हैं,
सृष्टि होती आकुल व्याकुल,
हिमगिरी का मुकुट पिघलता है...
तब गुलमोहर खिलता है !!!

जिद्दी बच्चे सी मचल हवा,
पैरों से धूल उड़ाती है,
तरुओं के तृषित शरीरों से,
लिपटी बेलें अकुलाती हैं,
जब वारिद की विरहाग्नि में,
धरती का तन मन जलता है...
तब गुलमोहर खिलता है !!!

निर्लिप्त खड़ा यूँ उपवन में,
ज्यों कोई दुःख ना कोई सुख,
रक्तिम फूलों की आभा से,
लाल हुआ है सुंदर मुख !
जब कोकिल की मीठी वाणी का,
रस पेड़ों पर झरता है...
तब गुलमोहर खिलता है !!!

तपती धरती, तपता अंबर,
प्रकटी है अग्नि, फूल बनकर,
सिंदूर सजाए सुहागन सा
तेजोमय यह सौंदर्य प्रखर !
नदिया के सूने तट कोई ,
जब राह किसी की तकता है...
तब गुलमोहर खिलता है !!!

रविवार, 7 मई 2017

कायरता

*कायरता*

यही तो कर्मभूमि है
इसे तजना है कायरता,
समझ लो युद्धभूमि है,
इसे तजना है कायरता।।
यही तो कर्मभूमि है....

कभी तलवार भी तुमको,
उठानी हाथ में होगी,
हमेशा फूल से नाजुक,
बने रहना है कायरता।।
यही तो कर्मभूमि है....

नहीं होगा हमेशा ही,
यहाँ मौसम बहारों का,
बढ़ो, तूफान झंझा में,
रुके रहना है कायरता।।
यही तो कर्मभूमि है....

गलीचे मखमली,कलियाँ,
नर्म फूलों की पंखुड़ियाँ,
नहीं कदमों तले हों, तो
सफर तजना है कायरता।।
यही तो कर्मभूमि है....

समर में कूद जाओ तो,

लड़ो फिर जंग आखिर तक,
अधर में छोड़कर रण को,
पलट जाना है कायरता।।
यही तो कर्मभूमि है....

कहो तुम बात अपनी भी,
सुनो तुम बात भी सबकी,
मगर हर बात पर 'हाँ जी'
कहे जाना है कायरता।।
यही तो कर्मभूमि है....

करो तुम श्रेष्ठतम अभिनय,
जगत की रंगभूमि में,
प्रदर्शित भाव में बहकर,
भटक जाना है कायरता ।।
यही तो कर्मभूमि है.....